बरेली लाइव डेस्क। कमल हसन के नाथूराम गोडसे को हिन्दू आतंकवादी बताने के बाद से ही पूरे देश में गोडसे को लेकर बहस फिर छिड़ गयी है। कमल हासन जैसे लोग जहां गोडसे को आतंकी बताते हैं तो साध्वी प्रज्ञा उसे देशभक्त बताती हैं। इसी बीच भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी नफा-नुकसान का आकलन करते हुए साध्वी प्रज्ञा के बयान से किनारा कर लिया। प्रधानमंत्री मोदी ने तो उन्हें क्षमा न करने की बात कहकर सबको चौंका ही दिया।
नाथूराम गोडसे को समझने के लिए उसके द्वारा कोर्ट में दिये गये बयान और उसके बाद केस की सुनवाई कर रहे जस्टिस जी.डी. खोसला के शब्दों को पढ़ना और समझना होगा। उसी के बाद तय किया जा सकेगा कि तत्कालीन परिस्थितियों में नाथूराम गोडसे ने जो किया वह राष्ट्रहित में था या आतंकी कृत्य। अलबत्ता किसी भी व्यक्ति की हत्या के कृत्य को सही नहीं ठहराया जा सकता, शायद इसीलिए गोडसे ने उसे गांधी हत्या न कहकर गांधी वध कहा।
गोडसे पर के गांधी जी की हत्या के बाद लाल किले में ट्रायल हुआ जिसकी सुनवाई जज आत्मा चरण ने की। ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ नाथूराम गोडसे ने एक याचिका लगायी थी। उसकी सुनवाई जस्टिस जीडी खोसला ने की। उन्होंने गोडसे के पक्ष को सुना और फैसला भी दिया। इसके बाद एक जस्टिस खोसला ने एक किताब लिखी-द मर्डर ऑफ महात्मा, जिसे सबसे पहले 1965 में जयको पब्लिशिंग हाउस, मुम्बई ने प्रकाशित किया था।
इस पुस्तक में जस्टिस खोसला ने सुनवाई के दौरान के अनुभव और नाथूराम गोडसे के तर्क और आशंकाओं को विस्तार से विश्लेषित किया है।
नाथूराम गोडसे के बयान के बाद जस्टिस जी डी खोसला के शब्द…
The audience was visibly and audibly moved. There was a deep silence when he
ceased speaking. Many women were in tears and men were coughing and searching for their handkerchiefs. The silence was accentuated and made deeper by the sound of a occasional subdued sniff or a muffled cough*. It
seemed to me that I was taking part in some kind of melodrama or in a sceneout of a Hollywood feature film. Once or twice I had interrupted Godse and
pointed out the irrelevance of what he was saying, but my colleagues seemed inclined to hear him and the audience most certainly thought that Godse’s
performance was the only worth-while part of the lengthy proceedings. A writer’s curiosity in watching the interplay of impact and response made me
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abstain from being too conscientious in the matter. Also I said to myself: ‘Theman is going to die soon. He is past doing any harm. He should be allowed to let
off steam for the last time.’
I have, however, no doubt that had the audience of that day been constituted
into a jury and entrusted with the task of deciding Godse’s appeal, they would
have brought in a verdict of ‘ not guilty’ by an overwhelming majority.