बरेली, मेरा गृह नगर। डेढ़ दशक से भी ज्यादा हो गया यहां मेहमान के जैसे ही आना-जाना हो पाया। अब जब फुसर्त से लौटा हूं तो मानो बचपन लौट आया है। पैंट की जेब में हाथ डाले आइटीआर काॅलोनी की तरफ निकल लिया। ओह! कितना कुछ बदल चुका है। चौक नंबर पांच में शान से खड़े रहने वाले मौलश्री के दोनाें पेड़ नदारद थे। धारा सिंह और नत्थू पंडित के घर के सामने खड़े ये दरख्त हम बच्चाें का मनपसंद अड्डा हुआ करते थे। आइटीआर और विमको के मैदान में हर सप्ताह दिखाई जाने वाली हिंदी फिल्माें की स्टोरी सुनते-सुनाते और मौलश्री के नन्हे-नन्हे फूल बीनते अनगिनत शाम यहां गुजारी थीं।
पांच नंबर चौक की ही पहली पुलिया के किनारे खड़ा नीम का विशाल दरख्त भी नहीं रहा। तर्जनी और अंगूठे से दबाकर निमकौरी फोड़ गुठली उछालना और किसी साथी की पीठ पर बेवजह यूं ही धौल जमा देने को याद कर ही रहा था कि होरीलाल बाबा याद आ गए। एक गुनगुनी सुबह हम लोग निमकौरी फोड़ने का मजा ले रहे थे कि बाबा ने साइकिल से उतर कर मेरा दायां कान उमेठ दिया। कस कर डांटा- निमकौरी का नाश क्यों मार रहे बे। इससे तो दवा और खेत को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ाें को मारने की खाद बनती है।
इतना सुनना था कि मानाे दिमाग की बत्ती जल गई। कान को सहलाते-सहलाते याद आया कि बंटी ताई कल मम्मी से कह रही थीं- इस बार बाड़ी में बैंगन तो बहुत हुए हैं पर कीड़े लगने से खराब हो जा रहे हैं। संगी-साथियाें को यह बात बताई तो एक साथ कई जोड़े हाथ जुट गए और वहां बिखरी निमकौरियां देखते ही देखते बगल में स्थित ताई की बाड़ी में जा समायीं।
पाकड़ का वो पेड़ और चटखारे …
पांच नंबर चौक के 104 नंबर मकान के पास से होते हुए कालोनी के पिछले हिस्से की और निकल लिया। चार नंबर चौक के ठीक पीछे स्थित सरजू पंडित की लकड़ी की टाल तो रसोई गैस ने दशकाें पहले ही खत्म कर दी थी पर अब तो पाकड़ का वो पेड़ भी नहीं रहा जिसकी कलियाें को हम घर से पुड़ियां में बांध कर लाया गया हरी मिर्च वाला नमक लगाकर चटखारे लेते थे। गर्मियाे की छुट्टियाें की दोपहर तो मानो हमने इसी पाकड़ के नाम कर दी थीं। आपातकाल के दौर में वृक्षारोपण के नाम पर लगाए गए यूकेलिप्टिस के पेड़ भी बुढ़ा चुके हैं। जो उतरते जेठ में आने वाली आंधियाें का ताब नहीं झेल पाए, धराशायी हो गए।
फैक्ट्री बंद होने के साथ ही धीरे-धीरे वीरान होती जा रही आइटीआर काॅलोनी की ढह चुकी चहारदीवारी को पार कर स्लीपर रोड पर पहुंच पलटा और अपने बचपन की गवाह रही कालोनी को फिर से निहारने की कोशिश की तो उदासी की चादर तन गई- सचमुच वक्त कितना कुछ बदल देता है। मौलश्री, नीम और पाकड़ के उन पेड़ाें की तरह बचपन के तमाम दोस्त भी तो बिछुड़ चुके हैं। कभी-कभार कोई मिल भी जाता है तो मानो सुकून नदारद है- कोई बिटिया की शादी की चिंता में घुल रहा है तो कोई बीटेक बेटे की बेरोजगारी के बारे में सोच-सोच कर बेजार है। परसाें खलीलपुर रोड पर अचानक मिल गया संजय भी तो 55 की उम्र में ही 65 का लग रहा था। पशि्चम की और डूबते सूरज को देखते हुए आगे बढ़ा तो बरसाें पहले पढ़ी रामदरश मिश्र की कविता याद आ गई-
वृद्धाें के पास होती हैं स्मृतियां
युवाआें के पास स्वप्न
मैं अधेड़ पचपन
न स्मृतियां न स्वप्न।
– गजेन्द्र त्रिपाठी
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