भारत में अनगिनत तीर्थ हैं परंतु इन सबमें प्रयागराज (इलाहाबाद) तीर्थराज के रूप में सुविख्यात है। भारत के प्राचीन धर्मग्रंथों और पुराणों में इस त्रिवेणी संगम की स्तुति की गई है। यह महान् राष्ट्रभक्त राजनीतिज्ञ और  कर्मयोगी मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, मदन मोहन मालवीय जैसे महापुरुषों की जन्मस्थली रहा है। अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का अवतरण भी इसी प्रयागराज की धरा पर 26 अक्टूबर 1890 को अपनी ननिहाल में हुआ था। उनके पिता जयनारायण कायस्थ एक सुशिक्षित, उत्तम विचारों से ओत-प्रोत, राष्ट्रभक्त एवं परोपकारी व्यक्ति थे। वह हथगांव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)  के निवासी और ग्वालियर रियासत में मुंगावली के ऐंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में हेडमास्टर थे। 

गणेश शंकर जन्म से 10 महीने तक ननिहाल में ही रहे। नाना सूरज प्रसाद उन दिनों सहारनपुर में सहायक जेलर थे। गणेश शंकर डबलरोटी खाने के बड़े शौकीन थे। उन दिनों कैदियों से ही डबल रोटियां बनवाई जाती थीं और बड़ी डबल रोटियां बाजारों में भी बिकती थीं। गणेश शंकर जो डबलरोटी खाते थे, वह सीधे जेल से उनके घर पहुंचती थी।  जब वह उसे देखते थे तो गर्व महसूस करते थे, पर उनकी मां और नाना-नानी को क्या पता था कि इस बालक को भी जीवन में जेल की रोटियां खानी पड़ेंगी, इसलिए वह अभी से जेल की बनी हुई रोटियों को खाने का अभ्यास कर रहा है।

गणेश शंकर जब चार वर्ष के थे, पिता उन्हें अपने साथ मुंगावली ले गए। उनकी इच्छा थी कि उनका पुत्र अच्छा नागरिक बने। बालक गणेश शंकर ने पांचवी कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उर्दू का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता हिंदी-प्रेमी थे अतः वह गणेश शंकर को हिंदी लिखना-पढ़ना भी सिखाने लगे। गणेश शंकर को उर्दू की अपेक्षा हिंदी अत्यंक सरल लगी। उन्होंने आगे चलकर लिखा था- मुझे हिंदी बड़ी सरल लगती थी। हिंदी पढ़ने में मेरा मन भी अधिक लगता था। मैंने उन्हीं दिनों हिंदी के अखबारों को पढ़कर बहुत-सी सामाजिक और राजनीतिक बातों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था।

समय के साथ गणेश ने 1907 ई. में द्वितीय श्रेणी में हाईस्कूल उत्तीर्ण किया और फिर एमए की पढ़ाई शारीरिक अक्षमता के कारण बीच में ही छोड़ दी। वह बेकार बैठे रहना पसंद नहीं करते थे अतः नौकरी करना शुरू किया। लेकिन युवा गणेश शंकर ने किसी के सामने झुकना और रोटी के लिए मानवता को बेचना नहीं सीखा था। वह हमेशा गंभीर एवं निर्भय रहते थे। वह उस समय पीपीएन स्कल में अध्यापन  कार्य कर रहे थे। वेतन था 20 रुपये मासिक। उन्हीं दिनों पं. सुंदर लाल का अखबार कर्मवीर निकलता था, जिसमें गोरी सरकार की तीखी आलोचनाएं छपा करती थीं। युवा गणेश शंकर भी उसे पढ़ते थे। एक दिन स्कूल के प्रधान ने उनको कर्मवीर पढ़ते हुए देख लिया और गरजे- इस अखबार को जला दो। लेकिन, गणेश शंकर भला क्यों जलाने लगे? कर्मवीर तो उनका प्रिय अखबार था और सुंदर लाल उनके प्रेरक गुरु। तपाक से उत्तर दिया- मैं अखबार तो नहीं जला सकता, नौकरी से त्यागपत्र अवश्य दे सकता हूं। और नौकरी छोड़ दी।

वर्ष 1909 तक गणेश शंकर अच्छे लेखक बन चुके थे। उनके लेख कर्मवीर, स्वराज, अभ्युदय आदि समाचार पत्रों में छपा करते थे जो  बहुत सराहे जाते थे। अपनी लेखनी के बल पर गणेश शंकर को अपने समय की श्रेष्ठ मासिक पत्रिका सरस्वती, जिसके प्रधान संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी थे, में कार्य करने का गौरव मिला। जिन दिनों गणेश शंकर सरस्वती में कार्य कर रहे थे, उन्हीं दिनों अभ्युदय में सहायक संपादक की जगह खाली हुई। यह एक राजनीतिक पत्र था जिसके संस्थापक एवं संपादक मदन मोहन मालवीय थे। सौभाग्यवश यह जगह गणेश शंकर को मिल गई।

कुछ समय बाद गणेश शंकर ने स्वयं एक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहा। इसके लिए धन की व्यवस्था अग्रणी सामाजिक कार्यकर्ता काशीप्रसाद ने की। इस पत्र का नाम रखा गया- प्रताप! जी हां, वही प्रताप जिसने भारतीय जन मानस में राष्ट्र की आजादी हेतु कृतसंकल्प रहकर लड़ने, गोरी सरकार के काले कारनामों को जनता के समक्ष प्रकट करने, अमीरों और जमींदारों के अत्याचारों का पर्दाफाश करने, थानेदारों द्वारा अनपढ़ एवं भोली जनता पर ढाये जा रहे जुल्मों का भंडा फोड़ने तथा गरीबों, किसानों और मजदूरों के भीतर स्वतंत्रता के भाव जगाने में अमूल्य, अतुलनीय एवं वंदनीय योगदान दिया। प्रताप गोरी सरकार, अमीरों और जमींदारों के काले कारनामों का जिस तरह खुलासा करता था, उससे ये उसके शत्रु बन गए। प्रताप पर मुकदमे दायर किए जाने लगे और गणेश शंकर को कई बार जेल जाना पड़ा।

13 अप्रैल 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भारतीयो को झकझोर कर रख दिया। भारतीय जन-मानस में अंग्रेज सरकार का आतंक बैठ गया। कई समाचार-पत्रों ने इस हृदय विदारक घटना को डरते-डरते छापा लेकिन प्रताप ने इस निष्कृष्ट कार्य को इस तरह बड़ी निर्भीकता से छापा कि सरकार उसको मधुमक्खियों का छत्ता मानने लगी। जलियांवाला हत्याकांड का जैसा विवरण प्रताप में छपा था, वैसा किसी अन्य पत्र में नहीं। यही नहीं प्रताप ने कई मर्मस्पर्शी अग्रलेख एवं टिप्पणियां भी प्रकाशित की थीं। गणेश शंकर अब प्रताप के माध्यम से जनता के बीच थे। प्रताप और गणेश शंकर दोनों एकःदूसरे के पूरक थे। असहयोग आंदोलन में प्रताप की सेवाएं सदा स्मरण की जाएंगी। इसी दौरान उनकी भेंट जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी और भगत सिंह से हुई। भगत सिंह ने गणेश शंकर के साथ प्रताप में लंबे समय तक कार्य भी किया।

1931 में भगत सिंह और उनके साथियों को असेम्बली बम विस्फोट के मामले में फांसी की सजा सुनाई गई थी। 23 मार्च को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। 24 मार्च के सवेरे जब यह खबर फैली तो हर तरफ शोक का समुद्र-सा उमड़ पड़ा। कई जगह दंगे हुए और साधारण दंगों ने साम्प्रदायिकत दंगे का रूप धारण कर लिया। हिंदू और मुसलमान मानव से दानव में परिवर्तित हो गए। घर, दुकानें जलाई गईं, स्त्रियों और बच्चों की निर्दयतापूर्वक हत्या की जाने लगी। किसी में साहस नहीं था कि घर से बाहर निकलकर दंगाइयों को समझाकर उन्हें शांत करे। लेकिन, गणेश शंकर से न रहा गया। सामाजिक एकता को भस्म होता देख वह व्याकुल हो उठे और दंगे की आग बुझाने के लिए घर से निकल पड़े।

25 मार्च 1931 की हल्की शीतल सुबह थी। भास्कर उदय हो चुके थे और उनकी स्वच्छ रश्मियं धरा पर उतर रही थीं। गणेश शंकर जलपान करने के बाद परिवारीजनों के विरोध के बावजूद स्वयंसेवकों के साथ रवाना हुए। चार स्वयंसेवकों में दो हिंदू और दो मुसलमान थे। गणेश शंकर कानपुर में पटकापुर और बंगाली मोहल्ला होते हुए चौक क्षेत्र की ओर जा रहे थे। रास्ता मुसलमानों के मुहल्ले से था। सहसा हजारों मुसलमनों की भीड़ उनके सामने आ गई जो लाठियों और बल्लम लिये हुए थे। कुछ मुसलमान बल्लम सीधा करके उनकी ओर झपटे। साथ के मुसलमान स्वयंसेवक गरज उठे- खबरदार ये वही गणेश शंकर हैं जिन्होंने हजारों मुसलमानों, स्त्रियों एवं बच्चों की जान बचाई है। इनकी जान लेना दोजख में जाने के बराबर है। तने हुए बल्लम वापस हो गए। भीड़ के समझदार मुसलमान पानी-पानी हो गए और गणेश शंकर से क्षमा मांगने लगे। गणेश शंकर ने कहा- तुम लोग भले ही हमें मार डालों पर हम तुम्हें तभी क्षमा करेंगे जब तक तुम एकता की शपथ नहीं लेते और मिल-जुलकर रहने की कसमें नहीं खाओगे। मुसलमान मौन हो गए। गणेश शंकर उन्हें छोड़कर कुछ ही दूर आगे बढ़े थे कि गली से फिर भीड़ निकल पड़ी। उस भीड़ के लोग भी बल्लमों और लाठियों से लैस थे। गणेश शंकर को देखते ही वे जंगली भेड़ियों की तरह उन पर झपट पड़े और धरती की गोद में सुला दिया। धरा का आंचल रक्त से लाल हो गया।

गणेश शंकर की हत्या का समग्र भारत में घोर विरोध हुआ। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी आदि ने उनकी हत्या को अमानवीय एवं निंदनीय कृत्य बतलाया।

अभ्युदय में प्रकाशित एक आलेख में लिखा था- गणेश शंकर की हत्या जिन लोगों ने की है, उन्हें हम वहशी और दानव के अतिरिक्त कुछ नहीं कहेंगे। गणेश जी तो अमर हो गए पर हत्या करने वालों को दोजख में भी स्थान नहीं मिलेगा। देखना तो यह है कि जिस मुहल्ले के पास उनकी हत्या हुई है, उस मुहल्ले कितने लोगों को सरकार फांसी के तख्ते पर चढ़ाती है?

ऐसे थे महा बलिदानी, महान क्रांतिकारी अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी। 139वीं जयंती पर उन्हें शत -शत नमन और भावभीनी श्रद्धांजलि।

सुरेन्द्र बीनू सिन्हा

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता एवं मानव सेवा क्लब के अध्यक्ष हैं)

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