खटीमा (उत्तराखंड)। “स्वतंत्र भारत के चुनाव इतिहास में पहली बार अंग्रेजियत के षड्यंत्र से मुक्ति के लिए तकनीकी शिक्षा मातृभाषा में कराने का मुद्दा चुनाव घोषणा-पत्र में शामिल किया गया है। इसकी पहल की है भाजपा ने। इसकी शुरुआत हुई है “भारतीय राजनीति की प्रयोगशाला” बिहार से। यह भाषा आंदोलनकारियों की उल्लेखनीय सफलता है। इससे यह उम्मीद बढ़ी है कि भारतीय भाषाई अस्मिता के लिए संघर्षरत लोगों की मुहिम अंततः 25 वर्ष बाद ही सही, रंग लाने लगी है और भविष्य में अन्य दल भी इसे अपने चुनाव घोषणा-पत्र में शामिल करेंगे।”
यह कहना है भारतीय भाषा संरक्षण संगठन के राष्ट्रीय सचिव रवीन्द्र सिंह धामी का। उन्होंने कहा कि इस संघर्ष के प्रतिफल (निर्णयों) को भी आपके समक्ष रखना उनकी जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा कि उस दौर के भाषाई अस्मिता के संघर्ष के साथियों को आज आपको यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि 1991 से 1996 के बीच भारतीय भाषाई अस्मिता के संघर्ष में यह मांग उठाई गई थी कि सभी राजनीतिक दल मानसिक आजादी के लिए भारतीय भाषाओं यानी मातृभाषाओं को उनका हक दिलाने का मुद्दा अपने चुनाव घोषणा-पत्र में शामिल करें।
12 मई 1994 को पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की अगुवाई में पूरा विपक्ष, भारतीय भाषाई अस्मिता के समर्थक प्रमुख नेता, सांसद आदि संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर इन्हें सभी भारतीय भाषाओं यानि मातृभाषा में कराने और संसद में दो बार पारित संसदीय संकल्प को लागू कराने के लिए एकजुट हुए तो अंग्रेजियत की जड़ें हिल गई थीं। अगले वर्ष धरने का एक वर्ष पूरा होने पर जब 12 मई 1995 को सत्याग्रह स्थल पर एकत्र हुए तो भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी समेत विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओँ के समक्ष इस मुद्दे को चुनाव घोषणा-पत्र में शामिल करने की मांग उठाई गई थी। उस दिन आडवाणी ने कहा था कि आजादी की आधी सदी बीतने के बाद भी स्वराज (भारतीय भाषाओँ) के लिए आंदोलन चलाने के लिए मजबूर होना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह सभी भारतीय भाषाओं का प्रश्न है, यह अंग्रेजी हटाने का नहीं बल्कि अंग्रेजी का वर्चस्व हटाने का संघर्ष है। उस समय वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानन्द मिश्र ने भाषा आंदोलन की ओर से यह मांग उठाई थी कि सभी राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणा-पत्र में इस मुद्दे को शामिल करें। धामी ने बताया कि उन्होंने उस समय इस सघर्ष के पहले चरण में ग्राम स्तर तक जनता को सीधे जोड़ने के लिए अभियान चलाने का ऐलान किया था।
इस सभा को भारतीय भाषा समर्थक तत्कालीन भाजपा सांसद बीएल शर्मा प्रेम, स्वामी अग्निवेश, जनता पार्टी के महासचिव अरविंद चतुर्वेदी, भारतीय भाषा संरक्षण संगठन के पुष्पेन्द्र चौहान, समाचार एजेंसी भाषा के संपादक वेदप्रताप वैदिक समेत अनेक दलों के प्रमुख नेताओँ, साहित्यकारों और पत्रकारों ने संबोधित किया था। अगले दिन देश के सभी प्रमुख भाषाई अखबारों ने इस आंदोलन को प्रमुखता से प्रकाशित किया था।
धामी कहते हैं कि वह जानते हैं कि अंग्रेजी की मानसिक गुलामी से बाहर आना आसान नहीं है। भारतीय भाषाओं का अस्मिता के लिए संघर्ष जारी रखना होगा। अब भाजपा ने बिहार विधानसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में मातृभाषा में मेडिकल, इंजीनियरिंग समेत अन्य तकनीकी
और उच्च शिक्षा को उपलब्ध कराने के मुद्दे को शामिल किया है। उम्मीद है कि अन्य दल भी आगे आएंगे। इससे मानसिक आजादी यानी भारतीय भाषाओं को उनका आधिकार मिलेगा।