ये कोरोना काल भी “दुख की महागाथा” बन गया है। देश-दुनिया के तमाम लोगों के साथ ही इस दौरान मीडिया के कई साथी हमें छोड़कर चले गए। टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने यार वीरेश रावत के जाने के गम से उबर भी नहीं पाया था कि पंकज (शुक्ला) भी कल शुक्रवार को अनंत यात्रा पर चला गया।

मेरे लिए यह एक ऐसी खबर है जिस पर अब भी मानो विश्वास नहीं हो रहा है। सवेरे-सवेरे गिरीश पांडेय की फेसबुक पोस्ट से यह हृयद विदारक सूचना मिली। विश्वास नहीं होने पर विशाल गुप्ता को फोन मिलाया तो उन्होंने पुष्टि की मुहर लगा दी। दिमाग जैसे सुन्न हो गया। इसके बाद यूसुफ किरमानी की फेसबुक पोस्ट पढ़ी तो धीरज जवाब दे गया। खासकर किरमानी की पोस्ट से 1995-96 का वह दौर किसी फिल्म की तरह आँखों के सामने घूम गया जब मैं, पंकज, किरमानी, निर्भय सक्सेना, राजीव सक्सेना, फिरासत, दिनेश पवन, सुनील कुमार आदि दैनिक जागरण की बरेली यूनिट में थे।

एक शाम प्रेस पहुंचा ही था कि 25-26 साल के एक युवक को अपनी कुर्सी के ठीक बगल वाली कुर्सी पर बैठा देखा। जनरल डेस्क इंचार्ज सुनील कुमार ने परिचय कराया- ये पंकज हैं। डॉ. अखिलेश शुक्ला के बेटे। अभी तक आज (अखबार) में थे।  




स्मृति शेष : मेरे विवाह के उपलक्ष्य में 29 नवंबर 1995 को आयोजित प्रीतिभोज में निर्भय सक्सेना, सुनील कुमार, सुगोद नाथ त्रिपाठी और पंकज शुक्ला। सुनील कुमार, सुगोद नाथ त्रिपाठी और पंकज शुक्ला अब हमारी स्मृतियों का हिस्सा हैं।————————————————————————————————————————————————–

कुछ समय तक हमारे साथ जनरल डेस्क में काम करने के बाद पंकज को रिपोर्टिंग में भेज दिया गया। उस समय तक वह कुछ शर्मीले-संकोची थे और किसी विशेष विचारधारा या गुट से भी नहीं जुड़े थे। हां, इतना आज भी याद ही कि पंकज को जिस भी बीट पर काम दिया गया, उन्होंने उसे बखूबी कर दिखाया।

इसके बाद का घटनाक्रम तेजी से गुजरा। पहले किरमानी और उसके बाद मैं अलग-अलग वजहों से दैनिक जागरण से अलग हो गए। कुछ समय. बाद मैं किरमानी के साथ एक अन्य अखबार में चला गया और पंकज दैनिक जागरण में ही बने रहे। करीब दो साल लंबा वह दौर भी याद रहेगा। एक खास कारण के चलते जहां दैनिक जागरण के कुछ साथी किसी सार्वजिनिक स्थान पर मिलने पर मुझसे नजर चुराने लगते थे, वहीं पंकज, सुनील कुमार, संजीव अरोड़ा जैसे भी थे जो बांहें फैलाकर मिलते थे।

बाद के दिनों में मैं हिंदुस्तान वाराणसी चला गया, किरमानी अमर उजाला और पंकज मुरादाबाद होते हुए दिल्ली पहुंचकर टीवी की दुनिया में रम गए। पिछले कुछ वर्षों से वह डिजिटल मीडिया में थे और अच्छी पहचान बना ली थी। प्रिंट मीडिया और टीवी न्यूज चैनल का अनुभव उनके खूब काम आया। खबरों को पहचान और विश्लेषण करने की क्षमता उनकी ताकत थी। उन्होंने राजसत्ता एक्सप्रेस की न केवल स्थापना की बल्कि उसे खास पहचान भी दिलाई। इसका नया कार्यालय खोला तो किसी वीवीआईपी को आमंत्रित करने के बजाय अपने माता-पिता के कर-कमलों से उद्घाटन कराया।

पर मित्र, यह समय तो सफलता का आनंद लेने और जिम्मेदारियों को निभाने का था। ऐसे में तुम्हारा इस तरह चले जाना! तुम जहां भी होगे बहुत याद आओगे। तुम्हारा मुस्कुराती छवि आंखों में तैर रही है। आंसुओं को रोकने की कोशिश कर रहा हूं, ढुलक गए तो यह छवि कहीं हट न जाए।

 -गजेन्द्र त्रिपाठी

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