— जयंती पर विशेष —
किशन सरोज, एक फक्कड़ और मनमौजी कवि। साधारण व्यक्तित्व, न कोई घमंड, न कोई औपचारिकता जिससे भी मिलते दिल खोलकर मिलते। किशन सरोज जब रेलवे में कार्यरत थे (लगभग 35-40 वर्ष पूर्व) तब भी उनसे अक्सर भेंट होती रहती थी। उनके पुत्र स्व. अमिताभ पत्रकारिता में रहे, इस नाते उनके घर भी अक्सर जाना होता रहता था। किशन सरोज जब भूड़ मोहल्ले में रहते थे तो अक्सर उनसे कोहाड़ापीर पर अपने मित्र कन्हैया लाल बाजपेई के माध्यम से मुलाकात होती थी। कन्हैया लाल बाजपेई उस समय अमर उजाला के संपादकीय विभाग में थे।
एक बार किशन सरोज से उनकी पुरानी यादों के बारे में पूछा तो वह अपने अतीत के पन्ने पलटते हुए बताने लगे- निरुद्देश्य भटकाव और मदहोश आवारगी के आलम में एक दिन शाम के समय अपने एक दोस्त के साथ लौटते हुए गुलाबराय इंटर क़ॉलेज के प्रांगण में शामियाने में लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बजते हुए सुनाई पड़े। ‘तमाशा घुसके देखेंगे’ वाली आदत से मजबूर हम वहां जाने से खुद को रोक नहीं सके। कुर्सियां लगभग आधी भर चुकी थीं। श्रोताओं का आना लगा हुआ था। हम दोनों बैठ गए। पता लगा कि कवि सम्मेलन होने वाला है। देवी सरस्वती के माल्यार्पण के पश्चात कवियों को भी गुलाबों की मालाएं पहनाई गईं और एक-एक करके कविगण कविताएं सुनाते रहे। मुझे तो सभी अच्छे लगे। आसपास के नगरों-कस्बों के और स्थानीय कवि ही थे। मुझे अपने नगर के सतीश संतोषी और प्रेम जी के सुमधुर स्वर में गाए गीतों ने गहरे तक प्रभावित किया। रात दो बजे तक चले इस काव्य समारोह ने सभी श्रोताओं और मुझे विशेष रूप से मंत्रमुग्ध कर दिया। उस रात की इस साहित्यिक घटना ने मेरा जीवन बदल दिया। मन के अंधियारों में जैसे एक दीप जल उठा।
किशन सरोज ने एक बार बताया था- मेरे भीतर की व्याकुलता की अभिव्यक्ति की भाषा तथा मेरे व्यक्तित्व की ‘व्यर्थता’ के बीच संस्कृत के विद्वान डॉ बलभ्रद प्रसाद शास्त्री और कवयित्री ज्ञानवती सक्सेना का फोन आया कि उन दोनों ने इच्छा जताई है कि हमारे साथ तुम्हारा भी अभिनंदन हो। मेरी ना-नुकर पर ज्ञानवती जी मुझे डांट पिलाई तो मुझे जाना पड़ा।
किशन सरोज ने बताया कि समारोह में दोनों विशिष्ट जनों ने अपने उद्गार धाराप्रवाह संस्कृत में व्यक्त किए। समीक्षक धर्मपाल गुप्त शलभ ने गीतों पर केन्द्रित संभाषण में मुझे सराहा। आखिरकार जब मेरी बारी आई तो मैंने कहा- अभिनंदित गुरुजनों! मैं तो आपकी पग धूलि के बराबर भी नहीं। सारे कवि विद्वान भी होते हैं यह धारणा भ्रांति मात्र है। कम से कम मेरे विषय में तो यह शत-प्रतिशत सत्य है। आप संस्कृत के प्रकांड पंडित और इधर मेरा इस देवभाषा का ज्ञान ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेवः’ तक ही सीमित है। मैं बहुश्रुत श्लोकों को छोड़कर अन्य किसी श्लोक का अर्थ भी नहीं समझ सकता। मेरी अकादमिक शिक्षा की प्रगति जानकर भी आपको आश्चर्य ही होगा। खाने और रहने तक का निश्चित ठौर नहीं था। मैंने मिडिल प्रथम श्रेणी और इंटरमीडिएट तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण किया। बीए के विषयों में से एक समाजशास्त्र में पूरक परीक्षा देकर जैसे-तैसे नैया पार लगी और एमए करने का साहस नहीं जुटा पाया क्योंकि अब फेल होने की स्थिति ही शेष थी। इसके बावजूद देश-विदेश की सैकड़ों संस्थाओं ने मुझे सम्मानित किया। इसके मूल में पांडित्य नहीं अपितु मेरा भटकाव, बिखराव, आवारगी, चरित्रहीनता की परिभाषा तक आने वाले अनेक दुर्गुण तथा रोम-रोम में व्याप्त कुछ पावन स्पर्शों का कभी न समाप्त होने वाली स्मृतियां हैं जिन्होंने मुझे आपके बीच बैठने के योग्य बनाया और आज आप इन महाज्ञानियों के स्तर का मान कर मुझे भी गौरवान्वित कर रहे हैं। कभी-कभी सामान्य मनुष्य की कमजोरियां भी उसे ऊपर उठाकर देवताओं की पंक्ति में लाकर खड़ा कर देती हैं। जिस प्रकार कभी बंगाली बुद्धिजीवियों और समाजशास्त्रियों के मतानुसार सर्वाधिक चरित्रहीन माने गए और समाज से लगभग बहिष्कृत महान उपन्यासकार शरतचंद चट्टोपाध्याय कालांतर में मरणोपरान्त ही सही, देश के मूर्धन्य साहित्यकारों द्वारा अंततः आवारा मसीहा कहलाए। कविवर रामावतार त्यागी की पंक्तियां हैं, “जी रहे हो जिस कला का नाम लेकर कुछ पता भी है वह कैसे बची है? सभ्यता की जिस अटारी पर खड़े हो, वह हमीं बदनाम लोगो ने रची है बस।” मैं आप सब का आभारी हूं।
किशन सरोज ने बताया- मेरे बैठने के बाद बहुत देर तक बजती रहीं तालियां मेरे इस कथन से सबकी सहमति की साक्षी थीं। यह कहकर उन्होंने एक लम्बा ठहाका लगाया। शाम का समय था और वह एकाएक बोले- निर्भय जी अभी रुको गला सूख रहा है, मैं अभी आ रहा हूं।
उसके बाद किशन सरोज बताने लगे कविता या शायरी पर किसी जाति या धर्म विशेष का एकाधिकार नहीं और मैं कायस्थ-पुराण भी नहीं रच रह लेकिन दबी जुबान, क्षमा करें दबी कलम से इतना अवश्यक लिखूंगा कि महाराज चित्रगुप्त के वंशजों को अगर हाशिए पर ढकेल दिया जाए तो हिंदी गीत का इतिहास अधूरा रहेगा। महादेवी जी से लेकर कुंवर बेचैन तक असंख्य मूल्यवान रत्न देवनागरी के कंठहार में ‘दिव्यमान’ हैं। उर्दूं में भी इनका योगदान कम नहीं। अखिल भारतीय स्तर छोड़ केवल बरेली पर ही निगाह डालें तो सोजन, जेब, साकिब और रामजीशरण सक्सेना जैसे उस्ताद शायरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त नहीं करना अन्याय ही कहलाएगा!
किशन सरोज ने आगे कहा- अगर कोई शख्स उर्दू में अपना नाम भी जानता है तो वह दिल नाम की चीज को जरूरी समझता है और दिल का सीधा संबंध कविता और शायरी से होता है। ऐसा मानने वालों की संख्या इसे न मानने वालों की संख्या से निश्चित ही बहुत अधिक है। आज तो दुनिया ही बदल गई है पर भारत के स्वाधीन होने के बहुत बाद तक नौकरी करना ही कायस्थों का मुख्य धंधा रहा था। कोर्ट-कचहरी से लेकर रेलवे, शिक्षा तथा राज्य विभागों तक कायस्थों के चर्चित प्रभुत्व के मूल में उनका उर्दू ज्ञान एक महत्वपूर्ण कारक था। उर्दू भाषा की उपरोक्त दिल वाली विशेषता को सच मान लें तो शायद इसी वजह से इस खाते-पीते अथवा कुछ अन्य लोगों के शब्दों में इस पीते-खाते मुंशी वर्ग के दिमाग में शायरी और कविता का कीड़ा भी कुलबुलाता रहता था। अब सभी के भाग्य में फिराक या कृष्ण बिहारी नूर बनना तो विधाता लिख नहीं सकता था। अतः अपने अपने स्तर तथा क्षमतानुसर इससे जुड़े रहकर अपनी और दूसरी की दिलजोई करते रहते थे।
किशन सरोज आगे बताने लगे जिन दिनों बारातों को तीन-तीन दिनों तक ठहराये जाने की प्रथा थी और बाराती मनोरंजनार्थ साथ ले जाई गई नर्तकियों, गानेवालियों, भांडों और नटों के करतब देखने का सुख लूटते थे, उसी दौरान कायस्थों के विवाह समारोहों में एक विशेष रस्म होती थी ‘न्योतिनी’। वर पक्ष के औपचारिक निमंत्रण पर एक शाम को अच्छी-खासी संख्या में कन्या पक्ष के लोग जनवासे में पधारते थे। वर पक्ष द्वारा उनका स्वागत-सत्कार माथे पर चंदन, वस्त्रों पर इत्र लगाकर एवं मिष्ठान शर्बत या चाय,पान के बीड़ों, लौंग, इलायची, मिश्री वितरण के साथ किया जाता था। फिर थोड़े अंतराल के बाद गुलाबजल के छिड़काव के बीच शेरो-शायरी और कविताओं की प्रतियोगिता चलती थी। दो-ढाई घंटे के बाद वर और उसके कुछ युवा मित्र एवं बंधु-बाधव कुंवर कलेवा की रस्म के लिए वधू के आवास आते थे। शेर ओ शायरी का सिलसिला वहां भी थमता नहीं था क्योंकि घर में मौजूद महिलाएं भी इसमें रस लेने लगती थी। ऐसे में युवकों का उत्साह बढ़ जाना स्वाभाविक ही कहा जाएगा। शेर का जवाब शेर से न दे पाने अथवा देर से देने पर तालियां पिट जाती थीं, नाक नीची हो जाने की नौबत आ जाती थी। तब तक मैं कवि नहीं बना था फिर भी मिडिल क्लास तक उर्दू प्रथम भाषा होने और मेरी रुचि विशेष के कारण मुझे हजारों अशआर और कविताएं कंठस्थ थीं। मेरे इसी विरल गुण के चलते कई शादी-बारातों में मेरी जबरदस्त पूछ और आवभगत होती। कैसे-कैसे विचित्र शायरों की कैसी-कैसी विलक्षण रचनाएं इन कार्यक्रमों में सुनने को मिलती थीं। शहरों और दूल्हा-दुल्हन के नामों तक का अनुवाद कर दिया जाता था। एक बार ऐसे ही एक अनूठे शायर ने पीलीभीत शहर से मनौने ग्राम गई बारात का काव्यात्मक वर्णन करते हुए अपनी नज्म में एक मिसरा यों पिरोया था- “जर्द-भितिया से चली पहुंची मनौने जाकर”। यानी पीलीभीत बहर में फिट नहीं बैठ रहा था सो उन्होंने उसका शब्दशः अनुवाद “जर्द भितिया” कर डाला था और आश्चर्य उस पंक्ति पर बहुत देर तक दाद का कौआ शोर मचाता रहा था और नोटों की बरसात-सी हो गई थी।
किशन सरोज ने आगे बताय- गुलाब राय स्कूल में सुने कवि सम्मेलन की प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने छह सात गीत लिख लिए थे पर संकोचवश किसी को सुनाए नहीं। एक दिन बड़ी जिज्जी के ठीक बराबर वाले भूड़ स्थित मकान के दरवाजे पर प्रेम बहादुर प्रेमी की नेम-प्लेट लगी देखकर मेरे विस्मय और प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। प्रेम बहादुर भी कायस्थ थे और पास की दूसरी गली में उनकी ससुराल थी, सो उन्होंने अपनी पत्नी ललिया जी के मायके मोह से प्रेरित आग्रह पर यह मकान किराये पर ले लिया था। मुझे लगा कुआं खुद ही प्यासे के पास आ गया। कायस्थ होने पर का मुझे गर्व है।