कबीर दास

कबीर जयंती पर विशेष

बीर दास भक्तिकाल की निर्गुण शाखा के एक प्रमुख कवि हैं। उनका जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ था। उस समय देश की अधिकतर जनता अशिक्षा के गहन अंधकार में डूबी हुई थी। समाज में तरह-तरह की विसंगतियां, कुरीतियां, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड एवं आडम्बर व्याप्त थे। कबीर अपनी रचनाओं में इन सब पर करारी चोट करते रहे। आपस में लड़-झगड़ रहे लोगों को मानव प्रेम का संदेश दिया।

कबीर का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे कवि, समाज सुधारक, क्रांति दृष्टा, क्रांति सृजक एवं युग दृष्टा थे। वे विचारक एवं चिंतक थे। इन सभी विशिष्ट गुणों के होने के बाद भी कबीर को अपने ऊपर जरा भी अभिमान नहीं था। वे तो अपने को निपट निरक्षर कहने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। उन्होंने अपने बारे में स्वयं लिखा-“मसि कागज छुओ नहीं, कलम गही नहीं हाथ।” उनका हृदय बड़ा सरल था। वे छल-प्रपंच एवं आत्म प्रदर्शन से कोसों दूर थे। वे लोगों के विरोध से विचलित नहीं हुए और लगातार साहित्य सृजन में लगे रहे।

मुगलशासकों, जमीदारों, साहूकारों एवं धर्म के ठेकेदारों के चंगुल में फंसी और उनके अत्याचारों से कराह रही जनता को उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा मानव प्रेम एवं समानता का संदेश दिया। कबीर के साहित्य में शाश्वत प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित होती है-

प्रेम ना वाड़ी ऊपजे, प्रेम ना हाट बिकाय।

राजा प्रजा जिहि रुचे, शीश देई लै जाय।।

कबीर दास कहते हैं कि प्रेम मानव हृदय की वह उद्दात्त भावना है जो ऊंच नीच, जाति-पंथ, धर्म-सम्प्रदाय, गरीब-अमीर की सीमाओं से परे है। इसे न कहीं से खरीदा जा सकता है और न कहीं उगाया जा सकता है। यह तो मानव हृदय में स्वयं उत्पन्न होता है-

कबिरा यह घर प्रेम का खाला का घर नाहिं।

सीस उतारे हाथ धरि, तब पैठे यह माहि।।

कबीर दास कहते हैं कि प्रेम का मार्ग बहुत कठिन है। इस पर चलना आसान नहीं है। प्रेम त्याग का नाम है। प्रेम समर्पण का नाम है। प्रेम बलिदान का नाम है। इसलिए इस दुरुह मार्ग पर वही अपने कदम बढ़ाए जो अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर हो-

जा घट प्रेम ना संचरै, सो घट जान मसान।

जैसे खाल लोहार की सांस लेत विन प्रान।।

कबीर प्रेम की महत्ता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस घर में या परिवार में आपस में प्रेम नहीं होता है वह घर श्मशान की भांति होता है। उदाहरण देते हुए कहते हैं कि प्रेम के बिना मनुष्य की हालत लोहार की धौकनी की भांति होती है जो निर्जीव होकर भी श्वांस लेती रहती है-

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोइ।

ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होइ।।

प्रेम ही वास्तविक ज्ञान है। उस समय के मौलवी एवं पंडितों को फटकारते हुए वे कहते हैं कि बड़ी-बड़ी पोथी पढ़ लेने से कोई ज्ञानी नहीं बन जाता। ज्ञानी बनने के लिए हृदय में मानवता के प्रति सच्चे प्रेम की जरूरत है-

लम्बा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार।

कहो संतौ क्यों पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।।

कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। वे कहते थे कि भगवान को पाने का मार्ग बहुत कठिन है। उसमें लोभ, मोह एवं तृष्णा रूपी बाधाएं हैं। जो इन सारी बाधाओं से मुक्त हो जाता है, वही भगवान को पा सकता है।

विरह कमंडल कर लिए, वैरागी दोऊ नैन।

मांगे दरस मधुकरी, छके रहे दिन रैन।।

कबीर भगवान को अपना आराध्य और स्वयं को उनकी आराध्या मानते हैं। वे राम के अदृश्य रूप को मानते हुए भी उन्हें अपना भरतार और स्वयं को उनकी दुल्हिन कहने में भी संकोच नहीं करते। वे कहते हैं कि वे उनके विरह में व्याकुल हैं और भगवान के दर्शन से ही उनके नेह तृप्त हो सकते हैं-

कै विरहन को मीच दे, कै आपा दिखलाइ।

आठ पहर का दाखना, मोपे सहा ना जाय।।

कबीर कहते हैं कि उनकी हालात उस विरहनी स्त्री जैसी है जो अपने प्रियतम के वियोग में व्याकुल है। वे अपने आराध्य को उलाहना देते हुए कहते हैं कि वे या तो अपने दर्शन दे दें या फिर इस विरहन को इस लौकिक संसार से मुक्त कर दें। अब हर समय यह विरह की पीड़ा उनसे सहन नहीं होती है।

कबीर अपनी उलटवासियों और रहस्यवाद के लिए भी जाने जाते हैं। उनकी उलटवासियों के उदाहरण देखिए-

जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, भीतर बाहर पानी।

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ्य कहो ग्यानी।।

धर्म गुरुओं के भ्रम को दूर करते हुए वे कहते हैं कि भगवान तो घट-घट व्यापी है, हम व्यर्थ ही उन्हे मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारों में ढूंढ़ते फिरते हैं-

कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढ़े वन माहि।

ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया जानहि नाहि।।

वे कहते हैं कि इतनी ज्ञानी पुरुषों की कोई जाति नहीं होती, कोई वर्ण नहीं होता। उसकी पहचान तो उसका ज्ञान है-

जाति ना पूछौं साधु की।

पूछो उसका ज्ञान।।

कबीर अपने विहंगम व्यक्तित्व एवं रचनाधर्मिता की दृष्टि से अतुलनीय है। साधना के क्षेत्र में वे युग पुरुष और साहित्य के क्षेत्र में युग दृष्टा हैं। वे एक सच्चे समाज सुधारक और पथ प्रदर्शक भी हैं। वे हिंदी साहित्य के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं और उनका यश रूपी प्रकाश कभी मद्धिम नहीं होगा। अपनी कालजयी रचनाओं के माध्यम से वे सदैव अमर रहेंगे।

सुरेश बाबू मिश्रा

(साहित्य भूषण से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार)

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