संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है, इसी से देश में दूसरी भाषाएं निकली हैं। सबसे पहले भारत में संस्कृत ही बोली गई थी। इसे भारत की 22 अनुसूचित भाषाओं में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। उत्तराखंड की यह एक आधिकारिक भाषा है। भारत के प्राचीन ग्रन्थों, वेद आदि की रचना संस्कृत में ही हुई थी। यह भाषा बहुत सी भाषाओं की जननी है। इसके बहुत से शब्दों से अंग्रेजी के शब्द बने हैं। महाभारत काल में वैदिक संस्कृत का प्रयोग होता था। संस्कृत आज देश की कम बोले जानी वाली भाषा बन गई है लेकिन इसकी महत्ता को हम सब जानते हैं। इसके द्वारा ही हमें दूसरी भाषा सीखने-बोलने में मदद मिली। इसकी सहायता से बाकी भाषाओँ की व्याकरण समझ में आती है।

भारतीय कैलेंडर के अनुसार संस्कृत दिवस सावन मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। संस्कृत दिवस की शुरुआत 1969 में हुई थी। इस बार संस्कृत दिवस 22 अगस्त 2021 को है। रक्षाबंधन का त्यौहार भी सावन माह की पूर्णिमा को होता है। इसका मतलब राखी और संस्कृत दिवस एक ही दिन होते हैं।

संस्कृत दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है। इसके मनाने का उद्देश्य यही है कि इस भाषा को और अधिक बढ़ावा मिले। इसे आम जनता के सामने लाया जाये, हमारी नयी पीढ़ी इस भाषा के बारे में जाने और इसके बारे में ज्ञान प्राप्त करे। आजकल के लोगों को लगता है कि संस्कृत पुराने ज़माने की भाषा है, जो समय के साथ पुरानी हो गई है। इसे बोलने और पढने में भी लोगों को शर्म आती है। लोगों की इसी सोच को बदलने के लिए इसे एक महत्वपूर्ण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संस्कृत बहुत ही परिष्कृत और सुंदर भाषा है। ये युगों-युगों से हमारे समाज को समृद्ध बना रही है। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति के विरासत का प्रतीक है। यह ऐसी कुंजी है  जो हमारे प्राचीन ग्रंथों और हमारी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं के असंख्य रहस्यों को जानने में मदद करती है। भारत के इतिहास में सबसे अधिक मूल्यवान और शिक्षाप्रद सामग्री शास्त्रीय भाषा संस्कृत में ही लिखी गई है। संस्कृत के अध्ययन से, विशेष रूप से वैदिक संस्कृत के अध्ययन से हमें मानव इतिहास के बारे में समझने और जानने का मौका मिलता है और यह प्राचीन सभ्यता को रोशन करने में भी सक्षम है। हाल के अध्ययनों में यह पाया गया है कि संस्कृत कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए सबसे अच्छा विकल्प है।

दुनिया में संस्कृत के प्रचार-प्रसार में विदेशियों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इन्हीं के द्वारा संस्कृत भाषा में निहित साहित्य की जानकारी पूरी दुनिया के सामने आ पाई है। सन् 1783 में सर विलियम जॉन ब्रिटिश सुप्रीम कोर्ट के जज के तौर पर कलकत्ता आये थे। वह अंग्रेजी भाषाविद्, संस्कृत के विद्वान और एशियाई सोसायटी के संस्थापक थे। उन्होंने कालिदास द्वारा संस्कृत में रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ एवं ‘ऋतु संहार’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। इसके अलावा कवि जयदेव द्वारा रचित ‘गीत गोविंद’ एवं मनु के कानून ‘मनुस्मृति’ को भी अंग्रेजी भाषा में परिवर्तित किया। सन 1785 में एक अन्य विद्वान सर चार्ल्स विल्किंस ने ‘श्रीमद्भगवत गीता’ को अंग्रेजी में लिखा।

भारतीय दंतकथाओं के संग्रह ‘हितोपदेश’ का जर्मन भाषाविद् मैक्स मुलर ने संस्कृत से जर्मन भाषा में अनुवाद किया था। उन्होंने अपना नाम भी बदल कर ‘मोक्ष मुलर भट’ कर लिया था। अपना नाम बदलना उनका संस्कृत के प्रति लगाव और उसकी पूजा करने का तरीका था। हालांकि इसके लिए उन्होंने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया था। कालिदास द्वारा रचित ‘मेघदूत’ को उन्होंने जर्मनी में लिखा और उसे ‘द फेटल रिंग’ नाम दिया। इसके अलावा भी मैक्स मुलर ने बहुत सी प्राचीन धार्मिक रचनाओं का संपादन किया जिन्हें ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने 1879 से 1884 के दौरान प्रकाशित किया।

इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आज विदेश में संस्कृत भाषा का अध्ययन और अध्यापन किया जा रहा है जबकि हमारे देश में संस्कृत की उपेक्षा हो रही है। संस्कृत हमारे गौरवमय अतीत की प्रतीक है। इसलिए हमारी सरकारों को संस्कृत के विकास के लिए गम्भीरतापूर्वक प्रयास करने चाहिए।

सुरेश बाबू मिश्र

(वरिष्ठ साहित्यकार)

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