- 20 अक्टूबर (शरद पूर्णिमा) जयन्ती पर विशेष
महर्षि वाल्मीकि की गणना वैदिक काल के महान ऋषियों में होती है। उन्होंने रामायण महाकाव्य की रचना की। रामायण को विश्व का आदि ग्रन्थ माना जाता है और वाल्मीकि को विश्व का आदि कवि। महर्षि वाल्मीकि विश्व के पहले ऐसे कवि हुए जिन्होंने महाकाव्य की रचना की। उन्होंने रामायण की रचना संस्कृत भाषा में की। रामायण में चौबीस हजार श्लोक हैं।
पुराणों के अनुसार माना जाता है कि वाल्मीकि महर्षि कश्यप के नौवें पुत्र प्रचेता की सन्तान थे। उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भ्रगु था। उनका जन्म शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। भारतीय संस्कृति में शरद पूर्णिमा का दिन एक पर्व के रूप में मनाया जाता है।
माना जाता है कि बचपन में एक भील वाल्मीकि को चुरा ले गया। उस समय वे दो-तीन वर्ष के बालक थे। इस प्रकार उनका पालन-पोषण भील नामक जनजाति के बच्चों के मध्य हुआ। इस कारण भील जनजाति के संस्कार ही उनके अन्दर आ गए। उस समय भील जनजाति के लोग जंगलों में रहते थे। जंगल में यात्रियों का सामान और धन लूटना ही उनका व्यवसाय था।
इस प्रकार वातावरण के प्रभाव से वे भी डाकू बन गए और डाकू रत्नाकर के नाम से पुकारे जाने लगे। उनका काम राहगीरों को लूटना था। यही उनके परिवार की आजीविका का मुख्य साधन था।
कहते हैं कि एक बार देवऋर्षि पृथ्वी पर विचरण करते हुए उस जंगल से गुजरे। रत्नाकर ने उनका सामान लूटने के उद्देश्य से उन्हें बन्दी बना लिया। नारद जी ने उन्हें समझाया कि दूसरों का धन और सामान लूटना और उन्हें बन्दी बनाना पाप है। फिर उन्होंने रत्नाकर से पूछा-“तुम यह पाप प्रतिदिन क्यों करते हो?“
रत्नाकर ने उत्तर दिया-“मैं अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए लूटमार करता हूँ।“
”क्या तुम्हारे परिवार के सदस्य भी तुम्हारे इस पाप कर्म में तुम्हारे भागीदार बनेंगे? नारद जी ने रत्नाकर से अगला प्रश्न पूछा।
रत्नाकर चुप रहा। उसने उसका कोई उत्तर नहीं दिया।
इस पर नारद जी ने उससे कहा-“जाओ जाकर अपने परिवार के सदस्यों से पूछा कर आओ तब तक मैं यहीं बन्दी बना रहूंगा। अगर तुम्हारे परिवार के सदस्य तुम्हारे पाप कर्म के भागीदार बनने की बात स्वीकार कर लेते हैं तो मैं स्वेच्छा से अपने सारे वस्त्र-आभूषण तुम्हें सौंपकर चला जाऊंगा।”
नारद जी की इन बातों ने डाकू रत्नाकर के मन में एक हलचल सी मचा दी। वह घर गया और उसने अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य से यह प्रश्न पूछा। परिवार के किसी भी सदस्य ने उसके पाप कर्म में सहभागी बनने की सहमति व्यक्त नहीं की।
इस घटना से डाकू रत्ना का हृदय परिवर्तित हो गया। उसने अपना घर त्याग दिया और राहगीरों से लूटमार करना बन्द कर दिया। उसके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया।
इसके बाद उसने कठोर साधना की। कहते हैं कि वह साधना में इतना ध्यानमग्न हो गया कि उसे अपने शरीर की कोई सुधि-बुधि नहीं रही। दीमक नामक असंख्य कीटों ने उनके शरीर को अपना घर बना लिया। दीमकों का घर बन जाने के कारण उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया। कई वर्षों की कठोर साधना के बाद उन्हें महर्षि पद की प्राप्ति हुई और वे महर्षि वाल्मीकि कहलाए।
महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के किनारे अपना आश्रम बनाकर रहते थे। पास में ही गंगा नदी बहती थी। वे प्रतिदिन गंगा में स्नान करने के लिए जाते थे। कहते हैं कि एक दिन वे गंगा में स्नान करके लौट रहे थे। किनारे पर खड़े एक वृक्ष पर उन्हें क्रौंच पक्षी के चहचहाने का स्वर सुनाई दिया। महर्षि ने ऊपर देखा। वृक्ष पर एक क्रौंच युगल काम क्रीड़ा में रत था। यह देखकर महर्षि मुस्कराते हुए आगे चल दिए। महर्षि कुछ ही कदम चले होंगे कि उन्हें क्रौंच पक्षी का करुण स्वर सुनाई दिया। महर्षि के कदम ठिठक गए। उन्होंने पीछे मुड़कर ऊपर की ओर देखा। वे यह देखकर सन्न रह गए कि किसी ने कामरत क्रौंच युगल में से नर युगल का अपने तीर द्वारा बध कर दिया था। मादा युगल करुण स्वर में विलाप कर रही थी। यह देखकर महर्षि का हृदय गहरे दुःख की पीड़ा से विदीर्ण हो उठा। इसी अवस्था में उनके मुख से यह श्लोक प्रस्फुटि हुआ-
“मा निषाद प्रतिष्ठा त्वम गमः शाश्वतीः समा:।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम, अवधी कामयोहितम्।।
आश्रम पहुंचकर महर्षि वाल्मीकि बार-बार उसी श्लोक के चिन्तन ध्यान में मग्न थे। महर्षि के मुख से प्रस्फुटित यह श्लोक सृष्टि की पहली काव्य रचना थी।
उसी समय परमपिता ब्रह्म महर्षि के आश्रम में अवतरित हुए। ब्रह्मा जी ने ऋषि वाल्मीकि से कहा-“ऋषिवर विधाता की इच्छा से ही देवी सरस्वती आपकी जिव्हा पर श्लोक बनकर प्रकट हुई हैं। आप इसी छंद में रघुवंशी श्री रामचन्द्र जी चरित की रचना करें।
परमपिता ब्रह्मा की आज्ञा मानकर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण नामक ग्रन्थ की रचना की। रामायण में वाल्मीकि ने मर्यादित जीवन का चित्रण अत्यन्त रोचकता एवं कुशलता के साथ किया है। रामायण पूरी दुनिया में बड़ी श्रद्धा के साथ पढ़ा जाता है और पूजा जाता है ।इस महान ग्रन्थ के रूप में महर्षि बाल्मीकि सदैव अमर रहेंगे ।
सुरेश बाबू मिश्रा
(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, बरेली)