इस बार एक संयोग हुआ है, नवरात्रि और रमजान के उपवास यानि रोजा एक साथ शुरू हुए हैं। यूं तो सभी धर्मों में उपवास किसी न किसी रूप में किया जाता है लेकिन जो धर्म भारत की धरती पर पैदा हुए हैं या कहें जिनका मूल सनातन धर्म है, उनमें व्रत-उपवास का कुछ ज्यादा ही महत्व है। अपने यहां अगर कोई सारे व्रत-उपवास रखे तो साल के आधे दिन तो व्रत-उपवास में ही निकल जाएंगे। कभी कोई एकादशी, कभी कोई खास अमावस्या तो कभी कोई चतुर्थी। पता नहीं कितनें बहाने हैं हमारी संस्कृत में उपवास रखने के, और सनातन संस्कृति से जुड़े हुए धर्मों में सबसे ज्यादा व्रत रखते हैं जैन।
व्रत-उपवास का जो भी धार्मिक महत्व है, उसके बारे में मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है और इस आलेख का यह उद्देश्य भी नही है लेकिन व्रत-उपवास किस तरह हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं और इनका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसके बारे में मैं जरूर यहां चर्चा करूंगा।
पहले तो मैं यह बताऊंगा कि आखिर भारत की धरती पर ही इतने व्रत-उपवास क्यों हैं। इसका कारण यह मुझे जान पड़ता है कि हम प्राचीन समय से ही भरी-पूरी खाई-अघाई सभ्यता रहे हैं। इसका कारण भौगोलिक है। अपने देश में हर तरह की जलवायु है। नदियों की उपजाऊ मिट्टी से बने मैदान हैं जिनमें हर तरह के अनाज, फल, सब्जियां आसानी से उग जाते हैं। प्राचीन समय में आबादी बहुत कम थी तो खाद्यान्न की इतनी समस्या नहीं थी। हमारी धरती लोगों की भोजन की जरूरतों पूरा करने में सक्षम थी और भुखमरी जैसी कोई चीज नहीं थी। हमारी संस्कृति में उपवास इसलिए नहीं आया है कि यहां खाने-पीने की कमी थी बल्कि यहां उपवास रखने की परंपरा भरे हुए पेट के कारण शुरू हुई। अपने यहां जैन लोग सबसे ज्यादा उपवास करते हैं तो इसका कारण यही है कि जैनी प्राचीन समय से ही समृद्ध रहे हैं। चूंकि उनके धार्मिक विश्वासों ने उन्हें खेती करने से रोक दिया तो वे व्यवसाय में आ गए और व्यवसायी आदमी प्रायः संपन्न होता ही है, इसलिए जैनियों ने सबसे ज्यादा व्रत-उपवास के बहाने ढूंढे हैं।
पश्चिम का विज्ञान भी लगा रहा व्रत-उपवास पर मुहर
व्रत-उपवास के फायदे आज पश्चिम का विज्ञान भी बता रहा है। वहां बाकायदा इस पर बड़ी-बड़ी किताबें लिखी जा रही हैं कि किस तरह व्रत-उपवास किये जायें। वहां तरह-तरह की फास्टिंग की पद्धतियां बताई जा रही हैं। कई तरह की फास्टिंग चल रही है। मजेदार बात यह है कि जितने भी तरीके वे बता रहे हैं वे सब हमारे यहां पहले से ही प्रचिलित हैं।
अपने यहां एक कहावत है कि तीन बार खाये रोगी, दो बार भोगी और एक बार खाये योगी। आज अमेरिकन किताब लिख रहे हैं “हाउ टू ईट वंस ए डे”। “आज वे भी कह रहे हैं कि दिन में एक बार खाना ही ठीक है। पहले वे कहते थे कि दिनभर थोड़ा-थोड़ा खाते रहना चाहिए लेकिन आज कह रहे हैं, जितना खाना है एक बार में खा लो, ज्यादा से ज्यादा दो बार में खा लो, बाकी समय खाली रखो पेट को।” इसके लिए बाकायदा विज्ञान और अनुसंधान का हवाला दिया जा रहा है।
आज विज्ञान कह रहा है कि हम लोग जितनी ज्यादा मात्रा में भोजन कर रहे हैं, उतना ज्यादा खाने के लिए हमारा शरीर डिजाइन ही नहीं हुआ है। हमारे पूर्वज जो जंगलों में रहते थे, उनके लिए इतना अधिक भोजन हर समय उपलब्ध नहीं था इसलिए उन्हें कई-कई दिन भूखा रहना पड़ता था। उसी हिसाब से हमारा शरीर डिजाइन है। लेकिन, आज हर समय भोजन उपलब्ध है। ऐसे में ज्यादा खाना ही हमारी स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं का सबसे बड़ा कारण है। मधुमेह (डायबिटीज), उच्च या निम्न रक्तचाप (ब्लड प्रेशर), हृदय से संबंधित रोग और पेट की तरह-तरह समस्याओं का असल कारण ज्यादा भोजन करना ही है। इसलिए यदि आप स्वस्थ रहना चाहते हैं तो अपने पूर्वजों की तरह कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर व्रत-उपवास रखना शुरू कर दें।
इस तरह समझिये ज्यादा खाने के नुकसान
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर को ऊर्जा कार्बोहाइड्रेट से मिलती है और जब यह ऊर्जा शरीर में ज्यादा हो जाती है तो ग्लाइकोजन के रूप में लिवर यानी यकृत में इकठ्ठा हो जाती है। अगर इसके उपयोग की नौबत नहीं आती तो शरीर इसको वसा के रूप में इकट्ठा कर लेता है। यह ऐसा ही है कि जब हमारे घर में ज्यादा भोजन बन जाता है तो हम बचे हुए खाने को उठाकर अपने फ्रिज में रख देते हैं। लेकिन यदि हमारे घर में लगातार इतना ज्यादा भोजन बनता रहे या आता रहे और फ्रिज भी भर जाए तो हम उसका प्रसंकरण कर इक्कट्ठा करेंगे। लेकिन, यदि हमारे परिवार को इस अतिरिक्त संरक्षित किये गए भोजन की जरूरत ही ना पड़े तो क्या होगा? यह भोजन खराब होने लगेगा। हमारे घर में दुर्गन्ध फैलने लगेगी। ऐसा ही हमारे शरीर में भी हो रहा है।
हमारे लिवर में जमा ग्लाइकोजन और शरीर में जमा वसा उन दिनों के लिए होती हैं जब हमें कोई भोजन नहीं मिलता और शरीर उससे ही काम चलाता है। जब हमारे शरीर को कम से कम 12 घंटे भोजन नहीं मिलता है तो वह इस स्टॉक में से ऊर्जा लेने लगता है, यानि कि वसा टूटनी शुरू हो जाती है। इस प्रक्रिया को “कीटॉसिस” बोलते हैं। इसीलिए 24 घंटे का उपवास रखने को कहा जाता है। आजकल एक पद्धति और भी लोकप्रिय हो रही है कि अगर हम रोज अपने पेट को 16 घंटे खाली रखें तब भी हम उपवास का फायदा ले सकते हैं। इसको “इंटरमिटेंट फास्टिंग” कहा गया है, यानि कि एक बार में लंबा उपवास ना करके बीच-बीच में छोटे-छोटे उपवास करना।
ऐसा करना भी एक तरह की “इंटरमिटेंट फास्टिंग”
रमजान महीने में रोजे रखना भी भी एक तरह की “इंटरमिटेंट फास्टिंग” है। रोजेदार करीब 12 घण्टे का उपवास रखते हैं यानि कुछ भी नहीं खाते-पीते हैं लेकिन यदि इसको 16 घंटे खींचा जा सके तो यह स्वास्थ्य के लिहाज से ज्यादा कारगर हो जाएगा। क्योंकि 12 घण्टे में कीटोसिस की प्रक्रिया सिर्फ शूरू ही होती है, 4 अतिरिक्त घण्टे मिलने पर कीटोसिस की प्रक्रिया और तेज हो जाएगी।
प्रकृति के साथ तालमेल से विकसित हुई परंपरा
धर्मों को इस प्रक्रिया की जानकारी थी इसलिए धर्माचार्यों ने व्रत और उपवास बनाए मैं यह नहीं कहता। मेरे लिए यह किसी संगठित धर्म से जुड़ी हुई बात भी नहीं है, मेरे लिए उपवास की समझ आदिम मनुष्य के प्रकृति के साथ तालमेल से विकसित हुई है। समय के साथ-साथ इसको धार्मिक कर्मकांडों से जोड़ दिया गया ताकि लोग इसका नियम से पालन करते रहें। मैंने कहीं पढ़ा है कि अरब क्षेत्र में रोजा रखने की परंपरा इस्लाम के आने से पूर्व से ही है। यह वहां की आदिम संस्कृति का हिस्सा है। इस्लामिक संस्कृति का रमजान अरब क्षेत्र की जलवायु के हिसाब से ज्यादा डिज़ाइन है क्योंकि इस क्षेत्र में दिन अत्यधिक गर्म होते हैं और रातें आरामदायक एवं ठंडी, ऐसे में दिन में उपवास करना और आराम करना ज्यादा सुविधाजनक है।
भारत में मौसम तेजी से बदलते हैं। मुख्य रूप से नवरात्रि वर्ष में दो बार आती है- एक बार जब सर्दियां खत्म हो चुकी होती हैं और हम गर्मी का स्वागत कर रहे होते हैं और दूसरी बार जब बरसात खत्म हो चुकी होती है और हम सर्दियों के स्वागत कर रहे होते हैं। ये दोनों ही समय दो ऋतुओं का संधिकाल हैं। मौसम बदलने की वजह से शरीर में भी तेजी से परिवर्तन होते हैं। आप सब जानते हैं जब मौसम बदलता है तो हम सभी को समस्याएं होने लगती हैं तो ऐसे समय में ही नवरात्रि आती है ताकि हम अपने शरीर की शुद्धि कर सकें, उसको आने वाली ऋतु के लिए तैयार कर सकें।
मनुष्य तो मनुष्य मैंने पशुओं को भी उपवास करते हुए देखा है। घर के कुत्ते भी बीच-बीच में एक-आध दिन खाना नहीं खाते हैं। कोई भी पशु बीमार होने पर सबसे पहले भोजन छोड़ता है ताकि उसके अंदर की उर्जा उसके शरीर को स्वस्थ करने में इस्तेमाल हो।
पानी का भी करें उपवास
हम लोग अभी तक यह सुनते हैं कि पानी पीना शरीर के लिए अच्छा होता है, जितना ज्यादा पानी पियेंगे उतना ही शरीर स्वस्थ रहेगा। लेकिन नयी रिसर्च यह बता रही है कि जिन चूहों को कम पानी दिया गया उनकी उम्र उन तो चूहों की तुलना में ज्यादा हुई जिन्हें पर्याप्त मात्रा में पानी दिया गया था। वैज्ञानिक आज कह रहे हैं कि हमें कुछ दिन बिना पानी के भी रहना चाहिए। संभवतः इसलिए हमारी संस्कृति में बहुत से उपवास निर्जल करने की व्यवस्था दी गयी है।
आज की जीवनशैली में शायद ही ऐसा कोई दिन होता है जब हमें भोजन ना मिलता हो। ऐसे में तीज-त्योहार व्रत-उपवास या रोजा रखने के अच्छे बहाने हैं। धार्मिक कारणों से ना सही, स्वास्थ्य कारणों से ही आप उपवास करें या रोजा रखिए। लेकिन, उपवास को उपवास की तरह रखिये ना कि उपवास के दौरान फलाहार के नाम पर दिनभर तरह-तरह के पकवान खाते रहें।
पंकज गंगवार
(लेखक पोषण विज्ञान के गहन अध्येता होने के साथ ही न्यूट्रीकेयर बायो साइंस प्राइवेट लिमिटेड के चेयरमैन भी हैं)