हनुमान जी बन्दर थे या वानर, अखिर कौन थे हनुमान जी? ये एक बड़ा सवाल लोगों के मन-मस्तिष्क में रहता है। आइये इसका उत्तर वाल्मीकि रामायण के आधार पर खोजने का प्रयास करते हैं।
प्रथम “वानर” शब्द पर विचार करते है। सामान्य रूप से हम “वानर” शब्द से यह अभिप्रेत कर लेते है कि वानर का अर्थ होता है “बन्दर” | परन्तु अगर इस शब्द का विश्लेषण करे तो वानर शब्द का अर्थ होता है वन में रहने और वन में उत्पन्न होने वाले अन्न को ग्रहण करने वाला। जैसे पर्वत अर्थात गिरि में रहने वाले और वहाँ का अन्न ग्रहण करने वाले को गिरिजन कहते है। उसी प्रकार वन में रहने वाले को वानर कहते है। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति , प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।
किष्किन्धा कांड (3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले –
“न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ यजुर्वेद धारिणः |
न अ-साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् ||” (४/३/२८)
अर्थात, ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं है तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होनें सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया है | क्यूंकि इतने समय तक बोलने में इन्होनें किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है। संस्कार संपन्न, शास्त्रीय पद्धति से उच्चारण की हुई इनकी वाणी हृदय को हर्षित कर देती है ।”
सुंदर कांड (३०/१८-२०) में जब हनुमान अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सीता को अपना परिचय देने से पहले हनुमान जी सोचते हैं –
“यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझकर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरंभ कर देगी। इसलिए मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।”
इस प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की हनुमान जी चारों वेद, व्याकरण और संस्कृत सहित अनेक भाषाओं के ज्ञाता भी थे।
हनुमान जी के अतिरिक्त अन्य वानर जैसे की बालि पुत्र अंगद का भी वर्णन वाल्मीकि रामायण में संसार के श्रेष्ठ महापुरुष के रूप में किष्किन्धा कांड (५४/२) में हुआ है। हनुमान बालि पुत्र अंगद को अष्टांग बुद्धि से सम्पन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।
बुद्धि के यह आठ अंग हैं- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक ठीक समझना, विज्ञान व तत्वज्ञान।
चार प्रकार के बल हैं- साम , दाम, दंड और भेद।
राजनीति के चौदह गुण हैं- देशकाल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्टसहिष्णुता, सर्वविज्ञानता, दक्षता, उत्साह, मंत्रगुप्ति, एकवाक्यता, शूरता, भक्तिज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता।
भला इतने गुणों से सुशोभित अंगद बन्दर कहाँ से हो सकते हैं ?
किष्किन्धाकाण्ड सर्ग-३ में,
“सचिवोऽयं कपीन्द्रस्य सुग्रीवस्य महात्मनः ।
तमेव कांक्षमाणस्य ममान्तिक मिहागतः ” ।।२३।।
“ना ऋग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेदधरिणः ।
ना सामवेदविदुषः शक्यमेवविभाषितम् “।।२८।।
अर्थात् “हे लक्षमण ! यह ( हनुमान जी ) सुग्रीव के मन्त्री हैं और उनकी इच्छा से यह मेरे पास आये हैं । जिस व्यक्ति ने ऋग्वेद को नहीं पढ़ा है, जिसने यजुर्वेद को धारण नहीं किया है, जो सामवेद का पण्डित नहीं है, वह व्यक्ति, जैसी वाणी यह बोल रहे हैं वैसी नहीं बोल सकता है ।
किष्किन्धाकाण्ड सर्ग-३ में,
“नृनं व्याकरण कृत्मनमनेन बहुधा श्रुतम् ।
बहुव्यवहारतानेन न किञ्चिदशाब्दितम्” ।।२९।।
अर्थात् इन्होंने निश्चित ही सम्पूर्ण व्याकरण पढ़ा है क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण वर्तालाप में एक भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया है ।
किष्किन्धाकाण्ड सर्ग-१ में,
“श्रीरामो लक्ष्मणं प्राह पश्यैनं बटृरूपिणाम ।
शब्दशास्त्रमशेण श्रुतं नृनमनेकधा ” ।।१७।।
“अनेकभाषितं कृत्सनं न किञ्चिदपशब्दितम् ।
ततः प्राह हनुमन्तं राघवो ज्ञान विग्रहः “।।१८।।
अर्थात् राम ने कहा “हे लक्षमण ! इस ब्रह्मचारी को देखो । अवश्य ही इसने सम्पूर्ण व्याकरण कई बार भली प्रकार से पढ़ा है । देखो ! इतनी बातें कहीं किन्तु इसके बोलने में कहीं कोई एक भी अशुद्धि नहीं हुई ।
अंगद की माता तारा के विषय में मरते समय किष्किन्धा कांड (१६/१२) में बालि ने कहा था कि,
“सुषेन की पुत्री यह तारा सूक्षम विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिन्हों को समझने में सर्वथा निपुण है। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे नि:संग होकर करना। तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता।”
ऐसे गुण विशेष मनुष्यों में ही संभव है।
किष्किन्धा कांड (२५/३०) में बालि के अंतिम संस्कार के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी – “मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियम के अनुसार शास्त्र अनुकूल किया जाये।”
किष्किन्धा कांड (२६/१०) में सुग्रीव का राजतिलक हवन और मन्त्रादि के साथ विद्वानों ने किया। क्या बंदरों में शास्त्रीय विधि से संस्कार होता है?
जटायु नामक कोई गिद्ध पक्षी नहीं था। जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था। तब जटायु को देख कर सीता ने कहा –
“जटायो पश्य मम आर्य ह्रियमाणम् अनाथ वत् |
अनेन राक्षसेद्रेण करुणम् पाप कर्मणा || ” अरण्यक (४९/३८)
अर्थात “हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षस पति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा है।”
“कथम् तत् चन्द्र संकाशम् मुखम् आसीत् मनोहरम् |
सीतया कानि च उक्तानि तस्मिन् काले द्विजोत्तम || ” (६८/६)
अर्थात यहाँ जटायु को आर्य और द्विज कहा गया है। यह शब्द किसी पशु-पक्षी के सम्बोधन में नहीं कहे जाते।
रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –
“जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः ।” अरण्यक (५०/४)
अर्थात “मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु है।”
यह भी निश्चित है कि पशु-पक्षी किसी राज्य का राजा नहीं हो सकते। इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि जटायु पक्षी नहीं था, अपितु एक मनुष्य था। जो अपनी वृद्धावस्था में जंगल में वास कर रहा था।
जाम्बवन्त रीछ था | यह भी एक भ्रान्ति है। रामायण में वर्णन मिलता है कि जब युद्ध में लक्ष्मण मेघनाद के ब्रहमास्त्र से घायल हो गए थे। तब किसी को भी उस संकट से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था। तब विभीषण और हनुमान जाम्बवन्त के पास परामर्श लेने गये। तब जाम्बवन्त ने हनुमान को हिमालय जाकर ऋषभ नामक पर्वत और कैलाश नामक पर्वत से संजीवनी नामक औषधि लाने को कहा था।
युद्ध कांड सर्ग (७४/३१-३४) में यह प्रसंग मिलता है।
आपद काल में बुद्धिमान और विद्वान जनों से ही संकट का हल पूछा जाता है। युद्धकाल में ऐसा निर्णय किसी अत्यंत बुद्धिवान और विचारवान व्यक्ति से पूछा जाता है। पशु-पक्षी आदि से ऐसे संकट काल में उपाय पूछना सर्वप्रथम तो संभव ही नहीं हैं। दूसरे बुद्धि से परे की बात है। इसलिए स्वीकार्य नहीं है।
इसलिए जाम्बवान का रीछ जैसा पशु नहीं अपितु महाविद्वान होना ही संभव है।
इन सब वर्णन और विवरणों को बुद्धिपूर्वक पढ़ने से यह सिद्ध होता है कि हनुमान, बालि, सुग्रीव, जाम्बवन्त, जटायु, आदि विद्वान एवं बुद्धिमान मनुष्य थे। उन्हें बन्दर आदि मानना केवल मात्र एक कल्पना है | और अपने श्रेष्ठ महापुरुषों के विषय में यह असत्य कथन है।
… डा. विवेक आर्य |
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