Bareillylive : कुछ लोग कहते हैं सनातन धर्म खतरे में है। सनातन संस्कृति पर बहुत खतरा मंडरा रहा है। लेकिन हमारा मानना है कि सनातन धर्म और संस्कृति पर खतरा करने वाले लोग अपने आप समाप्त हो जाते हैं। रावण, कंस, बकासुर और कितने ही असुर आए और समय पर अपने कुल सहित विनष्ट हो गए।
उक्त बातें बरेली के मॉडल टाउन स्थित श्री हरि मंदिर के कथा मंडप में गंगा समग्र के आवाहन और अरुण गुप्ता जी के पावन संकल्प से आयोजित पंच दिवसीय श्रीराम कथा का गायन करते हुए तीसरे कथा सत्र में पूज्य श्री प्रेमभूषण जी महाराज ने व्यासपीठ से कहीं। सरस् श्रीराम कथा गायन के लिए लोक ख्याति प्राप्त प्रेममूर्ति पूज्य श्री प्रेमभूषण जी महाराज ने बाल लीला और धनुष भंग प्रसंगों का गायन करते हुए कहा कि हमारे राष्ट्रीय कवि इकबाल ने लिखा है –
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से। अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।। कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी। सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़माँ हमारा।। सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा।
पूज्य श्री ने कहा कि हमें विश्वास में रहना चाहिए कि हमारी सनातन संस्कृति सत्य पर आधारित है और यह शाश्वत भी है। भगवान में श्रद्धा और विश्वास रखते हुए हमें निरंतर भजन पूजन में लगे रहना चाहिए। हमारे सनातन सदग्रंथ बताते हैं कि फल की चिंता नहीं करते हुए जो निरंतर भजन पूजन और सत्कर्म में लगे रहते हैं, भगवान उन्हें उसका फल अवश्य प्रदान करते हैं।
मनुष्य को परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए उसे अपने कर्म को संभाल के रखने की आवश्यकता होती है। फल तो अवश्य मिलेगा, भले उसके परिणाम को मिलने में थोड़ा समय लगे। वृक्ष लगाते ही फल नहीं देने लगता है, समय आने पर फल निकलतेहैं।
पूज्यश्री ने कहा कि मनुष्य को स्वयं तय करना होता है कि उसे क्या चाहिए और कितना चाहिए? भगत की बहुत अधिक कामना नहीं होती है। संतो का कहना है कि भगवान से केवल एक ही कामना करनी चाहिए – हर परिस्थिति में हमारा चित्त आपमें लगा रहे। एक और महत्वपूर्ण बात हमें याद रखनी चाहिए – माता सीता ने मां भगवती से अपने मन की कोई बात नहीं कही थी फिर भी उन्हें वह प्राप्त हो गया जो वह चाहती थी। हम भी भगवान से कुछ ना मांगने का स्वभाव बनाएं भगवान से हमारी निकटता है तो वह हमारे मन को जान कर हमारे लिए जो उचित है वह स्वयं पूरा कर देंगे।
महाराज जी ने कहा कि मनुष्य का जीवन तप करने के लिए मिला है तप के माध्यम से ही हम अपने धरती पर आने के उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं। गंगा जी को धरती पर लाने के लिए भगीरथ की चार पीढ़ियां ने तप किया था। जिस कुल में कोई भगत तपता है उसी कुल में नए भगत का आगमन भी होता है।
भगत की बुद्धि लेनदेन या बनिया की तरह नहीं होती है। क्या दिया तो क्या पाया यह भगत नहीं सोचता है। भगवान के चरणों में भगत की सहज ही गति होती है। यह पूरी सृष्टि भगवान के वश में है। मनुष्य के वश में कुछ भी नहीं है।
जब भगवान से ही सब कुछ मिलना है तो भगवान में ही लगना चाहिए। घर में हम अगर अर्चा विग्रह की सेवा करते हैं, जीव भाव से करते हैं तो विग्रह भी बोलने लगते हैं। अगर हम घर में छोटे बच्चों से बात ना करें तो वह भी नहीं बोल पाते हैं इसलिए घर में अगर लाल को रखा है तो उनसे जीव भाव रखते हुए उनसे बात करें, उनकी सेवा करें। सनातन धर्म, सत्य आचरण के समाज के निर्माण पर ही आधारित है। यह प्रमाणित सत्य है कि सतकर्म में रहने वाले व्यक्ति के लिए संसार की हर वस्तु सुलभ होती है । ठीक इसी प्रकार से अगर राजा धर्मशील हो तो प्रकृति भी उसके प्रजा पालन में उसका पूरा-पूरा साथ देती है। धरती एक मुट्ठी अन्न को सौगुना करके वापस करती है। मिथिलेश की वाटिका में भगवान राम के स्वागत में पूरी प्रकृति उमड़ पड़ी थी। ठीक है इसी प्रकार से त्रेता में जहाँ भी राजा धर्मशील होते थे, समुद्र देव उनके स्वागत में अपने गर्भ से खजाने को लाकर तट पर बिखेर देते थे।
पूज्य श्री ने कहा कि सनातन धर्म और संस्कृति में भगवान राम जी का चरित्र हमें बार-बार यह सिखाता है कि हमें जीवन में किस प्रकार रहना है। जब हम राजा जनक जी की वाटिका के प्रसंग का दर्शन करते हैं जहां भगवान श्री राम और माता सीता जी को एक दूसरे का पहली बार दर्शन हुआ था तो हमें यह पता चलता है कि शीलवान व्यक्ति कैसा होता है?
महाराज श्री ने कहा कि संसार में अच्छा बुरा दोनों ही उपस्थित है जो भगत लोग हैं उन्हें अच्छे को ग्रहण करते हुए अपने जीवन को धन्य बनाने की आवश्यकता होती है। अपनी दृष्टि पर संयम से यह संभव हो पाता है। जब हम अच्छा देखने का प्रयास करते हैं तो हमें सब कुछ अच्छा ही दिखता है। क्योंकि हम जो देखते हैं वही सोचते हैं और धीरे-धीरे वैसा ही बन जाते हैं। जीवन में हमें किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि वो आपसे परेशान हो जाए। जितना हो सके जीवन को सरल और सहज बनाना चाहिए। सहजता ही ईश्वर की सर्वोपरि भक्ति है।
उन्होंने कहा कि समाज में आम लोग श्रेष्ठ के ही आचरण का अनुकरण और अनुसरण करते हैं ऐसे में सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने आचार, व्यवहार, आहार में श्रेष्ठता का प्रदर्शन करें, जिनका अनुकरण किया जा सके।
भारतीय सनातन संस्कृति में यह बार-बार प्रमाणित हुआ है कि जो भी व्यक्ति धर्म पथ पर चलते हुए संसार में विचरण करते हैं, उनके घर से दुख भी दूरी बना कर रहता है और ऐश्वर्य स्वयं चलकर उनके घर पहुंचते हैं। मनुष्य को किसी के भी अपकर्मों की चर्चा करने से बचना चाहिए। जब हम किसी के किए गए गलत कार्यों की बार-बार चर्चा करते हैं तो उस तरह की स्थिति हमारे अपने जीवन में भी उपस्थित होने लगती है।
महाराज श्री ने बताया आम जन जीवन में कहां उठना बैठना है, कहां नहीं जाना है, क्या खाना है? क्या नहीं खाना है। किससे कुछ लेना है और किससे कुछ नहीं लेना है आदि-आदि यही तो धर्म है। जब कोई व्यक्ति धर्म को धारण कर धर्मशीलता के जीवन को जीने का प्रयास करता है तो भगवान भी उसकी मदद करते हैं। भगवान श्री राम की मिथिला यात्रा और धनुषभंग के प्रसंगों का गायन करते हुए पूज्य महाराज जी ने कहा कि हम जिस युग में जी रहे हैं उस काल में दान ही सर्वश्रेष्ठ धर्म कार्य है। भगवान ने हमें कुछ देने के लिए ही दिया है । हम जो देते हैं , हमें वही वापस और ज्यादा मिलता है जैसे अगर हम धरती में एक मुट्ठी अन्न डालते हैं तो धरती माता हमें उसे 100 गुना करके देती हैं।
व्यासपीठ का सपत्नीक पूजन यजमान अरुण गुप्ता जी ने किया और राजेश कुमार जी राष्ट्रीय आयाम प्रमुख सहायक नदी गंगा समग्र, रवि शरण सिंह चौहान, प्राण संयोजक गंगा समग्र, अर्चना चौहान, डॉ विमल भारद्वाज, डॉ के एस अरोड़ा, अखिलेश सिंह और रवि छाबड़ा जी के साथ भगवान की आरती की। महाराज श्री ने कई सुमधुर भजनों से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। बड़ी संख्या में उपस्थित रामकथा के प्रेमी, भजनों का आनन्द लेते हुए झूमते नजर आए।