@sanatanyatra:महाराजा दशरथ और शनिदेव-पद्मपुराण में कथा आती है, एक बार जब शनि कत्तिका नक्षत्र के अन्त में थे, तब ज्योतिषियों ने राजा दशरथजी को बताया कि अब शनिदेव रोहिणी नक्षत्र को भेदकर (जिसे शकट भेद के नाम से भी जाना जाता है) जाने वाले हैं, जिसका फल देव-दानवों को भी भयंकर है और पृथ्वी पर तो बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष होना है। यह सुनकर सब लोग व्याकुल हो गये। तब राजा ने श्रीवसिष्ठ जी आदि ब्राह्मणों को बुलवाकर उनसे इसके परिहार का उपाय पूछा। वसिष्ठ जी बोले कि यह योग ब्रह्मा आदि से भी असाध्य है, इसका परिहार कोई नहीं कर सकता।

यह सुनकर राजा परम साहस धारणकर दिव्य रथ में अपने दिव्यास्त्रों सहित बैठकर सूर्य के सवा लक्ष योजन ऊपर नक्षत्रमण्डल में गये और वहाँ रोहिणी नक्षत्र के पृष्ठभाग में स्थित होकर उन्होंने शनि को लक्षित करके धनुष पर संहारास्त्र को चढ़ाकर आकर्ण-पर्यन्त खींचा। शनि यह देखकर डर तो गये, पर हँसते हुए बोले कि राजन् ! तुम्हारा पौरुष, उद्योग और तप सराहनीय है। मैं जिसकी तरफ देखता हूँ, वह देव-दैत्य कोई भी हो,भस्म हो जाता है, पर मैं तुम्हारे तप और उद्योग से प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर माँगो। राजा ने कहा कि जब तक पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य आदि हैं, तब तक आपकभी रोहिणी का भेदन न करें। शनि ने एवमस्तु कहा।
तदनन्तर शनि ने कहा-हम बहुत प्रसन्न हैं, तुम और वर माँगो। तब राजा ने कहा कि मैं यही माँगता हूँ कि शकटभेद कभी न कीजिये और बारह वर्ष दुर्भिक्ष कभी न हो। शनि ने यह वर भी दे दिया। इसके बाद महाराजा दशरथ ने धनुष को रख दिया और वे हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।
दशरथजी बोले-जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण, नील तथा भगवान् शंकरके समान है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जो जगत् के लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन शनैश्चरको बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कंकाल है तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को प्रणाम है। जिनके बड़े- बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन नैश्चरदेव को नमस्कार है। जिनके शरीर का ढाँचा फैला हुआ है, जिनके रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौडे, किंतु सुखे शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरूप हैं, उन शनिदेव को बारम्बार प्रणाम है। शने !आपके नेत्र खोखले के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। बलीमुख! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं; आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्करपुत्र! अभय देने वाले देवता! आपको प्रणाम है। नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव! आपको नमस्कारहै।

संवर्तक! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है। आपने तपस्या से अपने देहको दग्ध कर दिया है; आप सदा योगाभ्यास में तत्पर,भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र! आपको प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्य के पुत्र शनिदेव! आपको नमस्कार है।

आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग–ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव ! मुझ पर प्रसन्न होइये। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।

स्तोत्र सुनकर शनि प्रसन्न हुए और पुनः वर माँगने को कहा। राजाने माँगा कि आप किसी को पीड़ा न पहुँचायें। शनि ने कहा यह वर असम्भव है (क्योंकि जीवों के कर्मानुसार दुःख-सुख देने के लिये ही ग्रहों की नियुक्ति है), अतः हम तुमको यह वर देते हैं कि जो तुम्हारी इस स्तुति को पढ़ेगा, वह पीड़ा से मुक्त हो जायगा। हे राजन् ! किसी भी प्राणी के मृत्युस्थान, जन्मस्थान या चतुर्थ स्थानमें मैं रहूँ तो उसे मृत्युका कष्ट दे सकता हूँ, किंतु जो श्रद्धा से युक्त, पवित्र और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहमयी सुन्दर प्रतिमा का शमीपत्रों से पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मण को दान करता है और पूजन के पश्चात् हाथ जोड़कर मेरे इस स्तोत्र का जप करता है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूंगा। गोचर में, जन्म लग्न में,दशाओं तथा अन्तर्दशाओं में ग्रहपीड़ा का निवारण करके मैं सदा उसकी रक्षा करूँगा। इसी विधान से सारा संसार पीड़ा से मुक्त हो सकता है। तीनों वर पाकर राजा पुनःरथपर आरूढ़ होकर श्रीअयोध्याजी को लौट आये।

महाराजा दशरथ कृत शनि स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित
दशरथ उवाच:
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः॥
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी॥
याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्॥
प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत!॥
दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:॥1॥
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते॥ 2॥
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते॥ 3॥
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम:।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने॥ 4॥
नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च॥ 5॥
अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते॥ 6॥
तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:॥ 7॥
ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्॥ 8॥
देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:॥ 9॥
प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल:॥10॥
दशरथ उवाच:

प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्॥
दशरथ कृत शनिस्तोत्र हिन्दीपद्य रूपान्तरण
हे श्यामवर्णवाले, हे नील कण्ठ वाले।
कालाग्नि रूप वाले, हल्के शरीर वाले।।
स्वीकारो नमन मेरे, शनिदेव हम तुम्हारे।
सच्चे सुकर्म वाले हैं, मन से हो तुम हमारे।।
स्वीकारो नमन मेरे।
स्वीकारो भजन मेरे।।
हे दाढ़ी-मूछों वाले, लम्बी जटायें पाले।
हे दीर्घ नेत्र वालेे, शुष्कोदरा निराले।।
भय आकृति तुम्हारी, सब पापियों को मारे।
स्वीकारो नमन मेरे।
स्वीकारो भजन मेरे।।
हे पुष्ट देहधारी, स्थूल-रोम वाले।
कोटर सुनेत्र वाले, हे बज्र देह वाले।।
तुम ही सुयश दिलाते, सौभाग्य के सितारे।
स्वीकारो नमन मेरे।
स्वीकारो भजन मेरे।।
हे घोर रौद्र रूपा, भीषण कपालि भूपा।
हे नमन सर्वभक्षी बलिमुख शनी अनूपा ।।
हे भक्तों के सहारे, शनि! सब हवाले तेरे।
हैं पूज्य चरण तेरे।
स्वीकारो नमन मेरे।।
हे सूर्य-सुत तपस्वी, भास्कर के भय मनस्वी।
हे अधो दृष्टि वाले, हे विश्वमय यशस्वी।।
विश्वास श्रद्धा अर्पित सब कुछ तू ही निभाले।
स्वीकारो नमन मेरे।
हे पूज्य देव मेरे।।
अतितेज खड्गधारी, हे मन्दगति सुप्यारी।
तप-दग्ध-देहधारी, नित योगरत अपारी।।
संकट विकट हटा दे, हे महातेज वाले।
स्वीकारो नमन मेरे।
स्वीकारो नमन मेरे।।
नितप्रियसुधा में रत हो, अतृप्ति में निरत हो।
हो पूज्यतम जगत में, अत्यंत करुणा नत हो।।
हे ज्ञान नेत्र वाले, पावन प्रकाश वाले।
स्वीकारो भजन मेरे।
स्वीकारो नमन मेरे।।
जिस पर प्रसन्न दृष्टि, वैभव सुयश की वृष्टि।
वह जग का राज्य पाये, सम्राट तक कहाये।।
उत्तम स्वभाव वाले, तुमसे तिमिर उजाले।
स्वीकारो नमन मेरे।
स्वीकारो भजन मेरे।।
हो वक्र दृष्टि जिसपै, तत्क्षण विनष्ट होता।
मिट जाती राज्यसत्ता, हो के भिखारी रोता।।
डूबे न भक्त-नैय्या पतवार दे बचा ले।
स्वीकारो नमन मेरे।
शनि पूज्य चरण तेरे।।
हो मूलनाश उनका, दुर्बुद्धि होती जिन पर।
हो देव असुर मानव, हो सिद्ध या विद्याधर।।
देकर प्रसन्नता प्रभु अपने चरण लगा ले।
स्वीकारो नमन मेरे।
स्वीकारो भजन मेरे।।
होकर प्रसन्न हे प्रभु! वरदान यही दीजै।
बजरंग भक्त गण को दुनिया में अभय कीजै।।
सारे ग्रहों के स्वामी अपना विरद बचाले।
स्वीकारो नमन मेरे।
हैं पूज्य चरण तेरे।।
जय श्री शनिदेव

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