बड़बोले नेताओं ने डुबो दी सपा, अब भी लगाम कस लें तो उबर सकते हैं : डा. सत्येन्द्र

बरेली। पहले ही रामपुर के एक बड़े नेता कम थे समाजवादी पार्टी को डुबोने के लिए जो अब नरेश अग्रवाल भी इसी लाइन पर चल पड़े। पार्टी के बड़े नेताओं को अगर अपनी जुबान पर काबू नहीं रहा तो पार्टी को और गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा। पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को तत्काल ऐसे लोगों पर लगाम कसनी चाहिए जो अपने अनर्गल बयानों से पार्टी की छवि को और नकारात्मक करते जा रहे हैं। नेताओं की इन हरकतों से पहले से ही दूर हुए बहुसंख्यक और दूर चले जाएंगे। समाज के हर वर्ग की पार्टी के नेता क्यों कुछ लोगों की करीबी के लिए अधिक लोगों से दूरी बनाने पर तुल हैं।

यह व्यथा है समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे वरिष्ठ अस्थि रोग विशेषज्ञ डा. सत्येन्द्र सिंह की। उन्होंने बरेली लाइव के विशेष संवाददाता विशाल गुप्ता से बातचीत पार्टी और उसके नेताओं की गतिविधियों पर विस्तार से चर्चा की। इस दौरान वह पार्टी की निरन्तर होती जा रही दुर्दशा पर बेहद चिंतित दिखायी दिये। कई बार उन्होंने अखिलेश यादव की तारीफ की साथ ही उनसे बड़ बोले नेताओं पर लगाम कसने की अपील भी कर डाली। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश :-

प्रश्न- आप पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे हैं। क्या हो गया है आपकी पार्टी के नेताओं को जो, कभी कोई तो कभी कोई विवादित बयान देते हैं। क्या यही पार्टी की लाइन भी बन गयी है चर्चा में रहने के लिए?

डा. सत्येन्द्र – पवित्र सावन का महीना चल रहा है, तो सभी देशवासियों को सावन की हार्दिक शुभकामनाएं। देखिए, समाजवादी पार्टी समाज के हर वर्ग, जाति-धर्म के लोगों को साथ लेकर चलने वाली पार्टी है। जय प्रकाश जी के आन्दोलन के बाद निकली पार्टी किसी एक वर्ग की नहीं हो सकती। समाजवादी पार्टी सिद्धान्ततः राम मनोहर लोहिया की विचारधारा की पार्टी है और चौधरी चरण सिंह की विचारधारा के निकट है।

जहां तक पार्टी नेताओं के अनर्गल बयानों की बात है, तो मैं हमेशा से ही कहता रहा हूं कि सभी को साथ लेकर चलना होगा। आप बहुसंख्यकों की भावनाओं से खिलवाड़ करके न तो अपना विकास कर सकते हैं और न देश का। मैं अध्यक्ष जी (अखिलेश यादव) से लगातार कहता रहा हूं कि बड़बोले नेताओं पर लगाम कसें। तभी पार्टी उबर सकती है, अन्यथा एक बड़े नेता ने अपने अनाप-शनाप बयानों से पार्टी की क्या स्थिति कर दी किसी से छिपी नहीं है। पहले वो अकेले ऐसे बड़े नेता थे अब नरेश अग्रवाल भी रही-सही कसर पूरी करने में लग गये। हालांकि उन्होंने माफी मांगी ली लेकिन कमान से निकला तीर और जुबान से निकली बात किसी भी सूरते हाल में वापस नहीं होती।

प्रश्न- …तो आपका मानना है प्रदेश में जबर्दस्त हार के लिए एक बड़े नेता जिम्मेदार हैं? कौन हैं और कैसे? क्या पार्टी सुप्रीमो और अंदरूनी विवादों से कोई फर्क नहीं पड़ा?

डा. सत्येन्द्र – देखिए, आजम खां जैसे नेताओं ने अपने बयानों से पार्टी की छवि तुष्टीकरण करने वाली मुस्लिम परस्त पार्टी की बना दी। ऐसे में बहुसंख्यक हिन्दू एवं अन्य समुदाय हमसे दूर हो गये और नतीजा सबके सामने है।

पार्टी का वर्तमान चेहरा अखिलेश यादव हैं। जब अखिलेश जी ने सत्ता संभाली, तो तत्काल ही नयी और पुरानी विचारधारा में संघर्ष हो गया। अखिलेश जी पार्टी को युवा जोश से भरकर विकासोन्मुखी पार्टी बनाने की ओर अग्रसर थे, जो पुरानी विचारधारा वाले शिवपाल यादव और आजम खां जैसे नेताओं को नागवार गुजरा। हालांकि अखिलेश जी रिश्तों और सम्बंधों को ख्याल रखते हुए बहुत कुछ न चाहते हुए बर्दाश्त करते रहे। इससे भी पार्टी के बारे में गलत संदेश गया।

जहां तक पार्टी में संघर्ष की बात है तो अखिलेश जी अपने 5 साल के कार्यकाल में दो मोर्चों पर लगातार लड़ते रहे। पहला काम था विकास का। जर्जर अवस्था में मिले प्रदेश को सड़कें, बिजली और कानून व्यवस्था को सुचारु किया जाये। दूसरा संघर्ष था पार्टी के पुराने नेताओं से। जो दो और दो को 5 करके सत्ता हथियाने में माहिर थे। उनसे संघर्ष की परिणति रही की पार्टी का विघटन हो गया।

एक छोर पर शिवपाल यादव की विचारधारा की पार्टी और दूसरी ओर अखिलेश यादव की विकासवादी विचारधारा की पार्टी। अखिलेश जी की लोकप्रियता इन लोगों पच नहीं रही थी, सो नित नये विवाद खड़े किये गये।

प्रश्न- आपका कहना है कि पार्टी ने तुष्टीकरण किया नहीं, विरोधियों ने ऐसी छवि बना दी? विरोधियों के मंसूबे पूरे हो जाना क्या अखिलेश यादव की प्रशासनिक और राजनीतिक असफलता नहीं कही जाएगी?

डा. सत्येन्द्र – विशाल जी, आप भी मानते होंगे कि अखिलेश यादव जी सभी के चहेते थे। कुछ लोगों को छोड़कर विपक्षी भी अखिलेश जी की कार्यशैली के कायल थे। लोग कहने लगे थे सरकार चाहे किसी पार्टी की आये, मुख्यमंत्री अखिलेश ही होन चाहिए। हां, मैं मानता हूं कि ऐसे में हम विधानसभा चुनाव तुष्टीकरण के चलते ही हारे।

सरकार ने बहुसंख्यक समाज के लिए भी बहुत काम किये। मसलन, अयोध्या से लेकर वृंदावन तक और काशी से लेकर मथुरा तक तो श्रावण यात्रा से लेकर गोहत्या विरोधी कानून बनाने तक सभी काम बहुसंख्यकों की आस्था के अनुरूप भी किये गये। कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए 50 हजार रूपये देने वाला पहला राज्य था उत्तर प्रदेश। यह अखिलेश जी ने ही शुरु किया था। इस सबके बावजूद ये मुद्दे चर्चा का विषय नहीं बन सके। चर्चा कब्रिस्तान और श्मशान में उलझ गयी।

जहां तक बात अखिलेश जी की प्रशासनिक क्षमता की है तो वे केवल रिश्तों का लिहाज करते रहे। लेकिन जब उन्होंने कदम उठाने शुरू किये तब तक देर हो चुकी थी।

प्रश्न- क्या कानून व्यवस्था का कोई मुद्दा नहीं था? पांच मुख्यमंत्रियों की बात भी कही जाती थी, इससे भी अखिलेश जी की छवि कमजोर सीएम की रही?

डा. सत्येन्द्र – अखिलेश यादव पहले सीएम हैं जिन्होंने ऑनलाइन एफआईआर सिस्टम, डायल-100, महिलाओं के लिए 1090 प्रभावशाली कदम उठाये। मैं मानता हूं कि शुरू के ढाई साल खराब रहे लेकिन बाद के ढाई साल बेहद अच्छी स्थिति थी, लेकिन तब तक छवि नकारात्मक बन चुकी थी। वर्तमान सरकार से तुलना करें तो आप पायेंगे कि पिछली सरकार में अपराध कम था। ऐसा भाजपा के भी कुछ नेता व्यक्तिगत बातचीत में मानते हैं।

जहां तक पांच सीएम की बात है तो सीएम केवल एक ही थे-अखिलेश यादव। हां, जैसे मैं पहले भी कह चुका हूं कि वह एक शिक्षित और संस्कारी व्यक्ति हैं। तो वे शुरुआती दिनों में रिश्तों को बचाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन बाद में उन्होंने प्रदेश की जनता के हित के लिए रिश्तों से मोर्चा लिया। वैसे, वर्तमान सरकार में तो तीन मुख्यमंत्री लिखा-पढ़त में हैं।

प्रश्न- सबकुछ इतना बेहतर था तो आपने राष्ट्रीय प्रवक्ता पद क्यों छोड़ दिया?

डा. सत्येन्द्र- सभी को अहसास था कि सपा सरकार जा रही है और भाजपा सत्ता में आयेगी। बरेली के सभी पदाधिकारी फोन पर या आपसी बातचीत में ये स्वीकार करते थे। मैं, पार्टी में भी और सोशल मीडिया के माध्यम से भी लगातार तुष्टीकरण की राजनीति का विरोध कर रहा था। मैंने कई बार चेताया कि आप एक पक्ष का ध्रुवीकरण कर रहे हो तो बहुसंख्यक स्वयं दूसरी ओर ध्रुवीकृत हो रहा है। एक बड़े नेता ने तो यहां तक कह डाला कि मुस्लिम ही यूपी का बादशाह तय करेंगे।

इसी कारण मुझे प्रवक्ता बनाया गया था कि बहुत कम समय में बहुसंख्यकों को वापस पार्टी की ओर झुका सकूं। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसके बाद मीडिया में पुराने प्रवक्ताओं ने मेरा विरोध किया। ऐसे में सभी एक तरफ थे और मैं अकेला एक तरफ। सो, पद छोड़ना ही उचित लगा, छोड़ दिया।

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