बरेली। आनंद आश्रम महोत्सव बुधवार को शुरू हो गया। प्रथम दिवस की सत्संग सभा की अध्यक्षता करते हुए श्री दैवी संपद्  मंडल आश्रम रायबरेली से पधारे संस्था के प्रमुख  स्वामी ज्योतिर्मयानंद महाराज ने अपने उद्बोधन में कहा कि दैवी सम्पद् मंडल आश्रम की स्थापना करने वाले महापुरुष ब्रह्मलीन स्वामी सुखदेवानंद महाराज द्वारा इस आश्रम की स्थापना और इसका नामकरण आनंद आश्रम रखने का मूल उद्देश्य  सर्व भूतहिते रता: था।

स्वामी ज्योतिर्मयानंद महाराज ने संसार का प्रत्येक प्राणी जीवन में एकमात्र आनंद की खोज में ही है। आनंद एक ऐसा शब्द है जिसकी मांग प्राणीमात्र में है। एक स्वान (कुत्ता) भी नींद से जगता है और अंगड़ाई लेता है तो अंगड़ाई लेते हुए भी वह फुर्ती और आनंद की अनुभूति करता है। हिंदी शब्दकोश में आज तक आनंद का कोई विलोम शब्द नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि आनंद जीवन की एक मूल मांग है। हम सभी आनंद चाहते हैं। कई बार व्यवहार में देखने को आता है कि लोग आपस में झगड़ते हैं, एक-दूसरे के अपशब्दों का प्रयोग करते हैं और इस पर भी कहते हैं कि बड़ा सुकून मिला, बड़ा आनंद मिला। इसके मूल में खोज तो आनंद की है।

स्वामी जी ने कहा कि इस संसार का जो मुख्य नियंता है वह मूल के रूप में है और जब हम उस मूल से जुड़ते हैं तो हमारा जीवन भी आनंद से भर जाता है। मूल ही वह परमात्मा है जिसके हम अंश हैं- ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशि। हम उस परमात्मा के अंश जो आनंद स्वरूप है, जो सुख रूप है, जो अजन्मा है, जो अविनाशी है, जो सास्वत है, जो हर कण में हर क्षण में है। बस हमारी दृष्टि बदलने की आवश्यकता। सत्संग में महापुरुषों की वाणी हमारे जीवन में हमारे जीवन और दृष्टि को बदल देती है और जब दृष्टि बदल जाती है अपने आप दिखाई पड़ती है। इसलिए कहते हैं, “नजरें बदल गईं तो नजारा बदल गया, किस्ती ने रुख बदला तो किनारे बदल गया। इसलिए हमें, आप सब को जीवन में सत्संग का आश्रय लेना चाहिए। सत्संग हमारे आवरण में परिवर्तन नहीं करता, बलिक यह हमारे अन्तरमन को बदल देता है, सोचने की दिशा को बदल देता है, हमारे स्वभाव को बदलता है, हमारे व्यवहार में परिवर्तन ला देता है, वाणी की कर्कशता समाप्त हो जाती है, उसमें मधुरता आ जाती है और लोगों के प्रति हमारा प्रेम  जागृत होता है।

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