बरेली। करीब चार साल पहले बरेली के नवाबगंज में हुई नई दिल्ली के निर्भया कांड जैसी घटना के दोनों आरोपितों को अदालत ने फांसी की सजा सुनाई है। अदालत ने इस मामले में फैसला बीती 8 जनवरी को ही सुरक्षित कर लिया था। इस जघन्य मामले में गांव के ही स्कूल में कक्षा एक में पढ़ने वाली बिटिया शाम को अचानक लापता हो गई थी। बाद में उसका शव निर्वस्त्र हालत में गांव के पास गन्ने के खेत में मिला था।
इस चर्चित मामले की सुनवाई विशेष न्यायाधीश पॉक्सो एक्ट सुनील कुमार यादव की विशेष कोर्ट में हुई। दोनों आरोपितों को विशेष कोर्ट से जमानत भी नहीं मिल सकी थी। दोनों जेल में हैं।
29 जनवरी 2016 को नवाबगंज की एक गांव की 12 साल की बच्ची अपनी मां के साथ गन्ने के
खेत में पताई लेने गई थी। एक बार वह पताई लेकर आ गई। मां ने उसे दोबारा पताई लेने
के लिए भेजा तो वह लौट कर वापस नहीं आई। तलाश करने पर उसकी निर्वस्त्र लाश सरसों
के खेत में मिली। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार बच्ची के गुप्तांग पर लकड़ी से कई वार
किए गए थे। शरीर पर और भी कई गंभीर चोटें थीं। पीड़िता के पिता की तहरीर पर नवाबगंज
पुलिस ने अज्ञात आरोपितों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी।
तत्कालीन
इंस्पेक्टर नवाबगंज आरके सिंह ने 31 जनवरी 2016 को आरोपित
मुरारीलाल को गिरफ्तार कर इस चर्चित हत्याकांड का खुलासा किया। मुरारीलाल ने पुलिस
को बताया कि उसने अपने साथी उमाकांत के साथ शराब के नशे में बच्ची के साथ गैंगरेप किया। लड़की ने अपने
मां-बाप से शिकायत करने की धमकी दी तो गला दबाकर उसकी हत्या कर दी। आरोपित
मुरारीलाल के कब्जे से पीड़िता के कपड़े और आरोपी उमाकांत के कब्जे से सफेद चादर
बरामद की गई थी।
विवेचना के बाद
मामला कोर्ट में पहुंचा और गवाही शुरू हुई। अभियोजन की ओर से मामले में 13 गवाह पेश किए गए। अदालत ने उमाकांत और
मुरली को इस मामले में दोषी ठहराया।
जांच और गवाही में आईं कई अड़चनें
करीब चार साल पहले हुई इस घटना की जांच और अदालती प्रक्रिया के दौरान एक नहीं कई अड़चनें आईं। पुलिस को गुमराह करने के प्रयास किए गए, कभी पीड़िता के परिवारीजनों तो कभी गवाहों को धमकी मिली। लेकिन, न परिवारीजन डिगे न गवाह। तमाम बाधाओं के बावजूद आगे जांच प्रक्रिया बढ़ते रही और पीड़ित पक्ष की इंसाफ चाह अंततः दोषियों को फांसी की सजा सुनाए जाने तक ले आई।
पुलिस ने जांच शुरू की पर कोई खास सबूत नहीं मिले, दरिंदगी करने वालों को लेकर भी कोई सुराग नहीं मिल रहा था। इसी दौरान गांव के ही रामचंद्र ने पुलिस को बताया कि मुरारीलाल और उमाकांत उससे मदद मांगने आए थे। वे पुलिस से बचाने की बात कह रहे थे। पुलिस के जैसे अंधेरे में रोशनी की किरण मिल गई। तुरंत दोनों को दबोच लिया। पूछताछ शुरू हुई तो दोनों आरोपित पुलिस को गुमराह करने का प्रयास करने लगे। इसके चलते पुलिस का काफी समय इधर-उधर चक्कर लगाने में नष्ट हो गया पर आखिरकार दोनों टूट गए। तत्कालीन पुलिस क्षेत्राधिकारी (सीओ) नरेश कुमार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए स्वयं जांच की। एक के बाद एक सबूत जुटते गए। पीड़िता की दादी के अलावा रामचंद्र आदि गवाह बने।
इस मामले में 2017 में चार्जशीट अदालत में पेश कर दी गई थी। इससे पहले जांच में बार-बार बाधा आयी। तत्कालीन इंस्पेक्टर आर्यन सिंह और सीओ नरेश कुमार का भी तबादला हो चुका था। कई बार गवाही का भी पेंच फंसा। दादी समेत कई गवाहों को डराने की कोशिश हुई। दबंगों का खौफ इस कदर था कि एक गवाह तो अदालत में अपने बयानों से पलट गया। रामचंद्र को पुलिस ने सुरक्षित रखने का भरोसा दिया तो वह गवाही देने को तैयार हुए।
डीजीपी ने खुद लिया मामले का संज्ञान
डीजीपी ओपी सिंह ने इस मामले का संज्ञान लिया। उन्होंने वर्तमान इंस्पेक्टर गौरव सिंह और डीआइजी राजेश पांडेय को लखनऊ बुलाया था। अभियोजन अधिकारी के साथ बैठकर इस पर चर्चा हुई। तत्कालीन सीओ और इंस्पेक्टर को बयान दर्ज कराने बुलाया गया। गवाह रामचंद्र को सुरक्षा देने का भरोसा दिया गया। उसकी ओर से धमकी देने का मुकदमा दर्ज हुआ। इसके बाद पीड़िता की मां और रामचंद्र की गवाही के आधार पर दोनों आरोपितों को दोषी पाया गया।
आरोपितों को दोषी करार देने से पहले तीन दिन तक लगातार इस मामले में बहस हुई। वर्तमान सरकारी वकील रीतराम राजपूत ने सभी साक्ष्यों और गवाहों को अदालत में पेश किया। इंस्पेक्टर गौरव सिंह लगातार गवाहों के संपर्क में रहकर उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करते रहे। तत्कालीन एसएसपी मुनिराज जी ने भी गवाह रामचंद्र का न केवल हौसला बढ़ाया बल्कि पुरस्कृत करने का भी वादा किया था।
गवाह ने लौटा दिए 15 हजार
आरोपितों की ओर से गवाही न देने के लिए रामचंद्र को 15 हजार रुपये भी दिए गए थे लेकिन रामचंद्र ने यह धनराशि वापस कर दी। रामचंद्र ने बताया कि इस मामले को लेकर इतना दवाब था कि वह रोजाना शराब पीने लगा। लेकिन, जबसे गवाही दी है, मन से बोझ हल्का हो गया है। नेक कार्य का नतीजा यह रहा कि अब शराब पीने का मन ही नहीं होता। बिटिया के माता, पिता चाहते थे कि आरोपितों को फांसी की सजा मिले। सजा ऐसी हो जो दरिंदों के लिए नजीर बने जिससे कोई भी ऐसा काम करने से पहले चार बार सोचे। सरकारी वकील रीतराम राजपूत की ओर से भी आदालत से फांसी की सजा की मांग की गई थी।
इंस्पेक्टर गौरव सिंह ने कहा कि निश्चित तौर पर घटना झकझोर देने वाली थी। गवाहों को संरक्षित और सुरक्षा का भरोसा दिया था। उनसे हर दूसरे-चौथे दिन संवाद किया था। एक गवाह पलटा लेकिन मां और रामचंद्र की गवाही और तत्कालीन इंस्पेक्टर एवं सीओ के बयानों ने केस को मजबूती दी थी। इसके बाद ही इस मामले को फैसले तक लाया जा सका।