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बरेली की विरासत : फाल्गुन-चैत में रामलीला, होली पर रामबारात

रंपराएं हमें न केवल अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से जोड़ती हैं बल्कि भटकाव के समय सही मार्ग भी दिखाती हैं। और यदि यह परंपरा स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से जुड़ी हो तो इसका महत्व और बढ़ जाता है। पौराणिक पांचाल राज्य की हृदयस्थली नाथनगरी बरेली की ऐसी ही समृद्ध परंपरा को अपने में समोये है श्री रामलीला सभा रजिस्टर्ड बमनपुरी की 160 वर्ष से अविकल रूप से मंचित होने वाली रामलीला। इस रामलीला का मुख्य और सबसे लोकप्रिय अंग है फाल्गुन पूर्णिमा पर निकाली जाने वाली “रंगबारात” जिसे हुरियार “रंगयात्रा” के नाम से भी पुकारते हैं।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनपुरी (लखनऊ) के ठीक मध्य में स्थित बरेली नगर में इस रामलीला का मंचन हर वर्ष होली के अवसर किया जाता है। श्री रामलीला सभा के महामंत्री राधाकृष्ण शर्मा प्रह्लाद ने बताया इस बार 23 मार्च 2021 को झंडी यात्रा के साथ इस रामलीला की शुरुआत होगी। स्मरण रहे कि चैत्र कृष्ण एकादशी पर रामलीला का एक पखवाड़े का मंचन सिर्फ बरेली में ही होता है। होली यानी फाल्गुन पूर्णिमा पर निकलने वाली भगवान राम की बारात यानी “रंगयात्रा” के बारे में बताया जाता है कि यह वर्ष 1861 से निरंतर निकाली जाती रही है। यह “रंगयात्रा”  मध्याह्न लगभग 12 बजे बमनपुरी में शुरू होकर बिहारीपुर ढाल, घंटाघर, अस्पताल रोड, कोतवाली, बरेली कॉलेज रोड, मठ की चौकी, आलमगिरीगंज, बड़ा बाजार होते हुए सायंकाल अपने गंतव्य बमनपुरी पहुंचकर समाप्त होती है। इस “रंगयात्रा”  या “रंगबारात” का जगह-जगह सभी धर्मों के लोग स्वागत कर पुष्पवर्षा करते हैं। बारात के आगे चल रहे टैक्ट्रर ट्राली और ठेलों पर सवार हुरियारे जगह-जगह रंग-मोर्चा खेलते चलते हैं। चाहबाई से पंडित (स्वर्गीय) राम गोपाल शर्मा एवं स्वर्गीय अशोक शर्मा के परिवार द्वारा निकाली जाने वाली “रंगबारात”  भी कुतुबखाना पर आकर इसी मुख्य “रंगबारात” में समाहित हो जाती है और इसी के साथ शुरू होता है पूरे शहर का भ्रमण। इस “रंगबारात”  में भगवान राम की झांकी के अलावा 22 ठेलों पर सवार हुरियारे आकर्षण का केन्द्र होते हैं

चाहबाई की “रंगबारात” को पंडित स्वर्गीय रामेश्वर दयाल मिश्रा, अवध मिश्रा, स्वर्गीय शांति महाराज, लल्लू महाराज, स्वर्गीय रामगोपाल शर्मा, निर्भय सक्सेना आदि ने शुरू कराया था। इस परंपरा को अब उनके परिवार के लोग निभा रहे हैं।                         

श्रीराम लीला सभा बमनपुरी के महामंत्री राधाकृष्ण शर्मा प्रह्लाद ने बताया कि इस बार 161वीं रामलीला का मंचन कोविड-19 के गाइडलाइन का पालन करते हुए 23 मार्च को झंडी पूजन के बाद झंडी मार्च से होगा। उन्होंने बताया कि श्री रामलीला सभा बमनपुरी में दो प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करा रही है जिसका कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है। इस रामलीला सभा को प्रदेश सरकार हर वर्ष एक लाख रुपये की आर्थिक सहायता देती है जिसे बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ से आग्रह किया जा रहा है। सदस्यता शुल्क एवं भवन किराया बढ़ा कर भी सभा की आय में वृद्धि की गई है। रामलीला सभा ने अपने पंजीकरण का नवीनीकरण वर्ष 2023 तक के लिए करा लिया है।

श्री रामलीला सभा ने समिति के पूर्व पदाधिकारियों एवं नगर के गणमान्य व्यक्तियों को शाल एवं अंगवस्त्र देकर सम्मानित करने का कार्य भी शुरू किया है। अब तक 50 लोगों को सम्मानित किया जा चुका है। इस कार्यक्रम को पूर्व अध्यक्ष मुनीश शर्मा (पूर्व सभासद) की देखरेख में शुरू किया गया था।

कभी बच्चे करते थे मंचन, अब एक समृद्ध परंपरा

राधाकृष्ण शर्मा प्रह्लाद ने बताया कि बमनपुरीन में रामलीला मंचन का इतिहास सन् 1861 से शुरू होता है। हालांकि बुर्जुगों के कथनानुसार यहां पर रामलीला इससे पूर्व भी खेली जाती रही था। तब क्षेत्र के बच्चे टिन, गत्ते आदि के मुकुट एवं बालों की दाढ़ी-मूछ बनाकर रामलीला का मंचन करते थे। पात्रों का श्रृंगार राजश्री शैली में प्राकृतिक रंगों से हुआ करता था। फाल्गुन माह के शुरू होते ही बच्चों द्वारा रामलीला मंचन की तैयारी शुरू कर दी जाती थी। बमनपुरी (ब्रह्मपुरी) की गलियों एवं उसके आस-पास के स्थानों पर विभिन्न लीलाओं का मंचन किया जाता था। उसी परम्परा में आज भी शबरी लीला का मंचन चटोरी गली में किया जाता है। कुछ लीलीओं का मंचन श्री अगस्त मुनि की गली और अगस्त्य मुनि आश्रम एवं छोटी बमनपुरी में होता है। राम-केवट संवाद का मंचन साहूकारा में होता है तो मेघनाथ यज्ञ बमनपुरी चौराहा पर होता है। लंकादहन मलूकपुर चौराहा पर होता है तो अंगद-रावण संवाद का मंचन शाहजी की बगिया के सामने किया जाता है। इस सबके बावजूद रामलीली का केंद्रबिदु श्री नृसिंह मंदिर बमनपुरी है।

इस रामलीला सभा को हकीम कन्हैयालाल, गोपेश्वर बाबू, जगन रस्तोगी पं. जंगबहादुर, बेनी माधव बिहारी लाल पं. राधेश्याम कथावाचक एवं मिर्जा जैसे गणमान्य लोगों ने नई दिशा दी। देश-दुनिया में ख्याति प्राप्त ये हस्तियां इस रामलीला में स्वयं विभिन्न पात्रों का स्वरूप धारण कर  मंचन करती थीं। उस समय रामलीला का मंचन पेट्रोमेक्स की रोशनी में रामचरित मानस की चौपाईयों के माध्यम से किया जाता था। दुल्हड़ी यानी दुल्हंडी के दिन भगवान श्री नृसिंह भगवान की शोभायात्रा निकाली जाती थी। बताते हैं कि एक बार रामलीला बंद होने की स्थिति में आ गई थी। तब बरेली के प्रसिद्ध धर्मगुरु आला हजरत मुफ्ती-ए-आजम हिंद ने रामलीला को शुरू कराने की अदालत से स्वीकृति दिलाई थी। होली पर रामलीला की इस परंपरा को बनाए रखने में क्षेत्र के मुस्लिमों का पूर्ण सहयोग रहा है। ख्वाजा कुतुब गद्दी के धर्मगुरु बांके मियां एवं अजीज मियां जैसी हस्तियां इस रामलीला के मंचन में सहयोग करती थीं। तत्कालीन नगर पालिकाध्यक्ष शाकिरदाद खां एवं रहीम दाद खां ने शासन एवं नगर पालिका की ओर से रामलीला के लिए गैस की रोशनी का प्रबंध, सफाई,  “रंगबारात” के गुजरने वाली सड़कों की मरम्मत, पानी के छिड़काव एवं रंगों के लिए ड्रमों में पानी की व्यवस्था के आदेश जारी कराए थे और स्वयं इनकी निगरानी करते थे। जिलाधिकारी के आदेश पर रावण दहन वाले दिन स्थानीय अवकाश भी होता था।

पिछली सदी को चौथे दशक में जनता ने रामलीला के लिए खुले हाथ से दान देना शुरू किया। फकीर चन्द्र रस्तोगी ने अपनी भूमि रामलीला सभा को दान कर दी। अंबिका प्रसाद के नेतृत्व में रामलीला भवन का निर्माण हुआ। शहर के रामभक्तों ने रामलीला सभा को भगवान राम और रावण के आकर्षक रथ बनवाकर दिए। वर्ष 1949 में साहूकारा के स्वर्गीय शिवचरन लाल ने राम-केवट संवाद को जीवंत करने के लिए लकड़ी की नाव बनवाकर रामलीला सभा को भेंट की। तब से राम-केवट संवाद साहूकारा स्थित भैरों जी के मंदिर पर मंचित किया जाता है।

इस रामलीला के पात्र अभिनय के दौरान तुलसी रामायण की चौपाइयां बोलते थे जिनकी भावपूर्ण- रसमय व्याख्या पं. राधेश्याम कथावाचक किया करते थे। उसके उपरांत पं. रघुवर दयाल और पंडित रज्जन गुरु ने इस परंपरा को निभाया।

पं. श्रीराम शंखधार के अनुसार क्षेत्र के पूर्वजों ने यहां रामलीला मंचन चैत्रकृष्ण एकादशी पर इसलिए शुरू कराया क्योंकि रामायण और पुराणों में रावण वध की तिथि चैत्रकृष्ण एकादशी बताई गई है। पंडित श्रीराम के अनुसार भारत में राम-चरित यानी रामलीला के मंचन की परंपरा गोस्वामी तुलसीदास ने शुरू की थी। किंवदन्ती है कि हनुमान जी ने बाबा तुलसीदास को अलग-अलग काल में रामलीला दिखाने की बात कही थी।

ब्रह्मपुरी (बमनपुर) में होली के अवसर पर श्रीरामलीला मंचन को आयोजन को सुनकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते हैं क्योंकि देश में रामलीला का मंचन आमतौर पर दीपावली से पूर्व क्वांर अर्थात आश्विनी मास में ही किया जाता है।

राधाकृष्ण शर्मा प्रह्लाद एवं राकेश शंखधार बताते हैं कि बरेली शहर की सभी दिशाओं में भगवान शिव के मंदिर हैं। ब्रह्मपुरी में भी भगवान नृसिंह का मंदिर और शिवालय है। पुराने लोग बताते हैं कि कभी आकाशवाणी हुई थी कि यहां भगवान शिव की पूजा सभी करते हैं, भगवान राम की कोई नहीं करता। सभी को राम का गुणगान करना है। इस पर ब्रह्मपुरी (बमनपुरी) के विद्वानों,  ब्राह्मणों, कर्मकांडी वेदपाठियों आदि ने कन्हैया टोला में स्थित श्रीराम मंदिर में टोली बनाकर रामलीला का प्रारंभ करा दिया जो नृसिंह मंदिर तक चलता रहा। रामलीला सभा के अभिलेखों के अनुसार 1861 में विधिवत् श्रीरामलीला महोत्सव मोहल्ले के बच्चों को ही पात्र बनाकर प्रारंभ हुआ। इसमें पं. हूलचंद्र, प्यारेलाल, पं. बहादुर लाल, पंडित राधेश्याम भी आने लगे। पंडित राधेश्याम ने पंडित बहादुरलाल के यहां हारमोनियम बजाना भी सीख लिया।

स्मरण रहे कि भगवान श्रीराम का प्राकट्य चैत्र शुदी शुक्ल पक्ष की नवमी पर अपराह्न 12 बजे हुआ था। इसी परंपरा पर रामलीला सभा की रामलीला का प्रारंभ दिन में 12 बजे ध्वजारोहण के साथ होता है। फाल्गुन मास की नवमी से यह कार्यक्रम प्रारंभ कर दिया जाता है ताकि होली दहन वाले दिन भगवान राम की बारात निकाली जा सके।

श्रीरामलीला के मंचन में कभी पं. रघुवर दयाल उर्फ रघुवर गुरु जैसे रामायण के मर्मज्ञ सहयोग करते थे। वह जैसा संवाद होता था, वैसे ही अभिनय करते हुए जनता को उसका अर्थ समझाते हुए थे। बाद में स्वर्गीय राधेश्याम ने अपनी शैली में रामलीला का मंचन कराकर उसे नवीनता दी। “रंगबारात”  में राजगद्दी जैसे विशेष सिहांसनों पर भगवान के स्वरूपों को बैठाकर लोग अपने कंधों पर शहर में घुमाया करते थे। पहले इसका रास्ता सिटी स्टेशन होकर अलखनाथ, गुलाबनगर, कोहाड़ापीर था। कुछ लोग बताते हैं एक बार वर्ष 1945 में रास्ते को लेकर कुछ विवाद हो गया। इस पर तत्कालीन जिलाधिकारी वारेन और शहर कोतवाल हांडू ने मौके पर पहुंचकर स्थिति को संभाला और कमेटी के लोगों से कहा कि सिंहासन को कोतवाली पर ले जाकर इसको वहीं समाप्त करा दें लेकिन रामलीला सभा के के पं. मुकुट बिहारी, पं. दीनानाथ मिश्र, पं. हफ्लू महाराज आदि ने कहा कि हम अपनी हिफाजत स्वयं कर लेंगे क्योंकि भगवान राम हमारे साथ हैं। उसके बाद सिंहासन अपने गंतव्य स्थल पर पहुंचा था। राम बारात में शहर में शहजहात के यहां से हौदा लगकर हाथी आता था। पंडित कन्हैया लाल वैद्य और बेनी माधव हेडमास्टर का घोड़ा सजकर चलता था। जब सिंहासन उठाने में परेशानी आने लगी तब 1950 में रामलीला सभा के अध्यक्ष रहे सूर्य प्रकाश एडवोकेट ने बग्घी राजगद्दी निकालना प्रारंभ कराया। बैलों के सिंहासन को हांकने का काम पंडित लल्लू महाराज, पं. श्रीराम गैस वाले और उनके बाद श्रीराम शंखधार का परिवार करता रहा। इनके बाद पं. राजेन्द्र एवं राकेश शंखधार ने रथ का संचालन किया। अंबिका प्रसाद, सूर्य प्रकाश एडवोकेट, जुलूस प्रभारी ला. रामलक्ष्मण, पं. कृष्ण मुरारी पाठक एवं कृपाशंकर पांडेय का भी योगदान रहता था। उसी समय श्रीरामलीला कमेटी द्वारा होली मिलन कार्यक्रम चौधरी तालाब पर शुरू हुआ। बाद में इसका आयोजन गुलाबराय कॉलेज के प्रांगण में होने लगा। अब रामलीला मंचन के समय अयोध्या की मंडली आती है और बमनपुरी में आर्कषक दुकानें लगती हैं।

महामंत्री राधाकृष्ण शर्मा ‘प्रहलाद’ का कहना है कि जिस तरह बरसाने की होली मशहूर है, वैसे ही बमनपुरी की होली की “रंगबारात” भी देश में  अपनी पहचान बना चुकी है। श्री इन्द्रदेव त्रिवेदी ने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार भी बमनपुरी की रामलीला कमेटी को आर्थिक मदद देती है जिसे बढ़वाने के लिए पुनः प्रयास किये जा रहे हैं।

-निर्भय सक्सेना

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं उपजा के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं)

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