राजनीतिक नजरिये देखें तो इस घटनाक्रम के कई निहितार्थ निकलते हैं। यह बताता है कि भारतीय जनता पार्टी में नये होते हुए भी उमेश की ‘‘जड़ें कितनी गहरी’’ हैं। बरेली में भाजपा के वरिष्ठतम नेता सात बार के सांसद, केन्द्रीय मंत्री के प्रबल विरोध के बावजूद टिकट मिल जाना, पार्टी के बदलने का स्पष्ट संकेत है। यह बताने के लिए काफी है कि पार्टी विद डिफरेन्स का लेबल वाली पार्टी और टिकट ‘बेचने’ वाले अन्य दलों में कोई अन्तर नहीं रह गया है।
टिकट वितरण में भले ही कितनी ही देर हुई हो लेकिन हुआ वही जो हवा में तैर रहा था। सात नवम्बर की रात लखनऊ बैठक में उमेश गौतम के पक्ष में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष समेत अन्य नेताओं ने गोलबंदी की, उससे टिकट के अन्य दावेदारों का हताश होना लाजिमी है। इसी के साथ पार्टी को राष्ट्रहित की पार्टी मानने वाले कार्यकर्ताओं का मनोबल भी धराशायी होना स्वाभाविक है। हालांकि उमेश गौतम के नामांकन में संतोष गंगवार का पहुंचना डैमेज कण्ट्रोल का प्रयास भर है। शायद संतोष जी की राजनीतिक मजबूरी भी।
कभी बरेली के चर्चित कोतवाल रहे और सीओ से रिटायर्ड हुए के.के. गौतम के बेटे उमेश गौतम जीवन के प्रारम्भ में लॉटरी का व्यवसाय करते थे। इसके बाद उन्होंने सिविल लाइन की एक बड़ी कोठी में एक कम्पनी की फ्रेन्चाइजी के रूप में शिक्षा व्यवसाय में पदार्पण किया। इसके बाद इन्वर्टिस इंस्टिट्यूट शुरू किया और उसे विश्वविद्यालय तक ले गए।
बसपा से सांसद का चुनाव लड़ चुके भाजपा नेता उमेश गौतम विधायकी का भी चुनाव लड़ चुके हैं। लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। लंबे समय से राजनीति में सक्रिय उमेश काफी दिनों से भाजपा और संघ नेताओं के करीबी हैं। भाजपा के प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल, प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडे से लेकर क्षेत्रीय अध्यक्ष बीएल वर्मा, क्षेत्रीय संगठन मंत्री भवानी सिंह समेत पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं से उनके मधुर संबंध हैं। वह लंबे समय से भाजपा के मेयर दावेदारी की तैयारी कर रहे थे।
उमेश गौतम का मुकाबला निवर्तमान मेयर और सपा प्रत्याशी डा. इकबाल सिंह तोमर से है। डा. तोमर स्वयं एक धन्वन्तरि तोमर अस्पताल के स्वामी और दो बार के मेयर हैं। अगर वह जीते तो तीसरी बार मेयर बनेंगे। डॉ. तोमर की छवि एक मृदुभाषी, लोकप्रिय जननेता की है। खास बात यह है कि सॉलिड वेस्ट मैनेजमेण्ट प्लाण्ट को लेकर डा. तोमर और उमेश गौतम पहले से ही आमने-सामने रहे हैं।
ऐसे में मुकाबला आसान नहीं होगा। भाजपा इस समय दो धड़ों में बंटी दिखायी दे रही है, वहीं समाजवादी पार्टी एकजुट होकर अपने प्रत्याशी के साथ खड़ी है। सपा की एकजुटता का पिछले दिनों नमूना जिला पंचायत अध्यक्ष के खिलाफ भाजपा के अविश्वास प्रस्ताव के रूप देखा गया है। जहां अविश्वास प्रस्ताव की घोषणा करने वाले चुनाव के दिन जिला पंचायत पहुंचे ही नहीं।
ऐसे में इसे एक और कोण से देखा जा सकता है कि क्या भाजपा के बरेली के कर्णधारों के प्रस्ताव या विरोध का कोई अर्थ है? क्या उनका ‘‘आडवाणी युग’’ शुरू हो गया है? या भारतीय जनता पार्टी में भी अन्य पार्टियों की तरह ‘‘नयी कार्य संस्कृति’’ शुरू हो चुकी है? यदि ऐसा है तो गंभीर और चिन्तनीय है।
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