इस विषय पर वेदांत की एक कथा प्रस्तुत है- एक गर्भवती सिंहनी शिकार करते समय चट्टान पर गिर पड़ी। तत्पश्चात वह एक शावक को जन्म देकर चल बसी। सिंह शावक भेड़ के झुंड में मेमनों के साथ पलने-बढ़ने लगा। वह स्वयं को मेमना ही समझने लगा तथा उसने मिमियाना और चरना सीख लिया। एक दिन एक शेर ने भेड़ के उस झुंड पर धावा बोल दिया। सिंह शावक को भेड़ों के बीच मिमियाते और भागते देखकर उसे भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस सिंह को लपककर पकड़ लिया। वह उसे नदी के किनारे ले गया। तत्पश्चात जल में स्वयं की और उसकी छवि की साम्यता दिखाई। फिर उसे मांस का टुकड़ा खिलाया। मांस खाते ही उस सिंह को अपने सही स्वरूप का यथार्थ बोध हुआ। फिर वह अकेले ही जंगल की ओर बढ़ चला।
इस कथा का मर्म है- मनुष्य अपने यथार्थ स्वरूप को जाने और ओढ़ी हुई झूठी कमजोरी से मुक्त हो जाए। जब तक हम ओढ़े हुए सम्मोहन में जीते हैं, तब तक अपने स्वरूप के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं। ज्यों ही हम झूठ की असत्यता के प्रति सजग होते हैं, त्यों ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं।
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