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जीवित रहते करें वृद्ध परिजन-असहायों की सेवा, श्राद्ध कर्म की तुलना में ज्यादा पुण्य मिलेगा

मृत व्यक्तियों के लिए उनके परिवारीजन श्राद्ध करते हैं। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं। पर आजकल समाज का हाल यह है कि जीवित रहते अपने वृद्ध परिवारीजन-असहायों की सेवा कम ही लोग करते हैं। अगर सोचा जाए तो क्या यह सब कहीं मात्र लकीर पीटना तो नहीं है। न तो मृत्यु भोज देने से गतात्मा के पेट में कुछ जाता है और न ही उनके नाम पर श्राद्ध करने पर उनका कुछ भला हो पाता है। तो क्यों न जब तक हमारे घर में बुजुर्ग जन जीवित हैं, उनका मान-आदर करें। उनकी जी-जान से सेवा करें। वृद्धाश्रमों में जाकर चंद मिनट उनकी सेवा करके अपना फोटो खिंचवाने की और वाहवाही लूटने की क्या वास्तव में जरूरत है? अगर ऐसा करना बंद हो जाये तो यह अच्छी बात है। हमें यह समझना चाहिए कि वृद्ध घर में एक छायादार वृक्ष की भांति हैं, जो फल भले ही न दें, छाया तो देते ही हैं।

सही बात तो यह है एक सभ्य समाज में वृद्धाश्रम होना ही नहीं चाहिए। पर इसका उलटा हो रहा है। पहले लोग वृद्धाश्रम को जानते ही नहीं थे। वृद्धजन की देखभाल उनके घर में होती थी। वृद्ध लोगों की सेवा के भाव एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हो जाते थे। संयुक्त बड़े परिवार होने के कारण घर में कुछ मन-मुटाव चलते रहते थे पर वे साथ-साथ रहते हुए आपने आप धुलते भी रहते थे। परिवार निर्माण की ऐसी परम्परा केवल भारत में थी। अब कहां गये वे दिन? लोग वही है, हां उन्होंने अपने आप ही एकल परिवार का ताना-बाना बुन लिया है। परिवार को अन्य लोगों से जब नहीं निभी तो अपना चौका-चूल्हा अलग कर लिया। साथ रहने में कुछ बातों में धीरज और गंभीरता होना चाहिए जो अब वह खत्म हो गई है। 

जब लोगों का स्वरोजगार से मन भटका तो भटकते ही गये। लोगों का जुड़ाव नौकरी के प्रति दिन प्रति दिन और गहरा होता जा रहा है। अब तो लोग पढ़ते भी हैं तो नौकरी पाने के लिए। इस मामले में हमारे बड़े भाई बताते थे- रेलवे में उस समय की नौकरी- 13 से लेकर 24 तक का समय बताओ और नौकरी पाओ। तब बहुत से लोग नौकरी ऐसे बदल लेते थे जैसे मूड चेंज करना। खैर ये तो थी पुराने समय की बातें। आज व्यक्ति नौकरी पाने के लिए लालायित रहता है। इसी का परिणाम है कि आज परिवार एकल परिवार में बदल गये हैं। यहां नौकरी नहीं मिली तो परदेस जाकर बस गये और फिर वहीं के होकर रह गये। इसका दुष्परिणाम आज हम देख रहे हैं। वृद्ध घर में अकेले हैं। उनके पास टाइम पास करने को मोबाइल फोन है और टीवी है, बड़ी कमी यह है कि बेटे-बहू परदेस में हैं, उनसे कोई सुख-सेवा नहीं पा सकते। प्रश्न यही है क्या उन्होंने इसी दिन को देखने के लिए औलाद को पैदा किया था। अब जब औलाद ये दिन दिखा रही है तो अब झेलो। नाती-पोतों को वृद्धजनों की छत्र-छाया नहीं मिलती है। वे क्या जानें दादा-दादी भी होते है। कहीं-कहीं तो बच्चे नौकरों के सहारे पल रहे हैं। ऐसे में बच्चों को जो संस्कार मिलने चाहिए वे नहीं मिल रहे हैं।

कहा जाता है परिवार बच्चे की प्रथम पाठशाला होती है। क्या हम बच्चों को ऐसा परिवार दे पा रहे हैं, जहां अपनापन हो, भावनात्मक रूप से लोग जुड़े हों। अब कुछ बातें अपनी भी। मेरे एक भाई ने पिता की काफी लंबे समय तक सेवा की। जिस काम से और भाई वितृष्णा करते थे, वह भाई उस काम को तत्परता से करते थे। मुझे इसका अच्छी तरह होश है। हम सारे भाई उनकी इस महानता को याद करते हैं। भाइयों के लिए भी उन्होंने बहुत कुछ किया। तभी तो जब भी कोई मुश्किल आती है तो यही कहा जाता है बड़े भाई हैं न। और भाइयों के परदेस में रहने के कारण माताजी की सेवा मेरे हिस्से में आई। जीवन संध्या में वह काफी समय बिस्तर पर रहीं। उनके काम मेरे ही हिस्से में आये। मेरे ख्याल से एक व्यक्ति जब तक शरीर से सक्रिय रहता है अपनी अकड़ दिखाता ही रहता है। और आखिरी समय कैसा शरीर से अशक्त हो जाता है, कैसे उसके परिवारी जन उसे सनकी, चटोरा कहकर उससे किनारा कर लेते हैं। उनकी तब और दुर्गत हो जाती है जब वे पेंशन आदि का सहयोग नहीं दे पाते। बहुत दुख होता है ऐसे लोगों पर जो अपने वृद्ध जनों को लावारिस हालत में छोड़ देते हैं। असहाय वृद्धजनों की सेवा का पुण्य हम जीते जी अगर बटोर लें तो फिर बाद में उनका श्राद्ध करने और पुण्य-कर्म आदि का कोई औचित्य नहीं रह जाता। 

दिलीप गुप्ता

(प्रस्तुति : निर्भय सक्सेना)

(ये लेखक और प्रस्तोता के अपने विचार हैं।)

gajendra tripathi

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