नई दिल्ली। भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति मिलने के बाद सत्ता प्रतिष्ठान पर हावे रहे तथाकथित वामपंथी इतिहासकारों के उस दावे की अब हवा निकल गई है जिसमें कहा जाता रहा है कि आर्य भारत के मूल निवासी न होकर बाहर से आये थे। हरियाणा के हिसार जिले के राखीगढ़ी में हुई हड़प्पाकालीन सभ्यता की खुदाई में कई राजों पर से पर्दा उठा है। यहां मिले 5000 साल पुराने कंकालों के अध्ययन के बाद जारी की गई रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि आर्य यहीं के मूल निवासी थे, बाहर से नहीं आए थे। यह भी पता चला है कि भारत के लोगों के जीन में पिछले हजारों सालों में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।
आर्यों
को लेकर किए जाते रहे दावों की सत्याता का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने राखीगढ़ी में मिले नरकंकालों के
अवशेषों का डीएनए टेस्ट किया। इस डीएनए टेस्ट से पता चला है कि यह रिपोर्ट प्राचीन
आर्यों की डीएनए रिपोर्ट से मेल नहीं खाती है। ऐसे में जाहिर है कि आर्यों के बाहर
से आने की थ्योरी ही गलत साबित हो जाती है।
पुणे के डेक्कन कॉलेज के पूर्व वीसी प्रोफेसर वीएस शिंदे का कहना है कि आर्यन शब्द का इस्तेमाल बिल्कुल गलत है। उनका मानना है कि भारत से लोग बाहर गए और कई देशों में जाकर बसे। उन्होंने कहा कि तुर्कमेनिस्तान और ईरान के लोगो के उस वक़्त के कंकाल का मिलान करने पर भारत के लोगों का संबंध वहां के लोगों से मिला जिससे इस दावे की पुष्टि होती है। अध्ययन के अनुसार, दक्षिण एशिया के ज़्यादातर देशों के लोगों का डीएनए हड़प्पन डीएनए है। अध्ययन का दावा है कि भारत, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश में लोग यहीं से जाकर बसे थे। अध्ययन का दावा है कि भारत में आर्यन हमले (Aryan invasion) जैसी कोई घटना नहीं हुई थी।
जेनेटिक स्टडी (Genetic Study) के अनुसार, पिछले 12 हज़ार साल से अब तक जो विकास हुआ वह यहां के लोगों ने ही किया है। इस दौरान बाहर से कोई नहीं आया था। अध्ययन का यह भी दावा है कि हड़प्पा के समय का डीएनए विश्लेषण करने के दौरान यह बात सामने आई की इसमें 12 हज़ार साल में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
अध्ययन में सामने आया है कि भारत के विकास में यहीं के लोगों का योगदान है। 9000 साल पहले भारत के लोगों ने ही खेतीबाड़ी की शुरुआत की थी। इसके बाद ये ईरान व इराक होते हुए पूरी दुनिया में पहुंची। कृषि से लेकर विज्ञान तक, यहां पर समय-समय पर विकास होता रहा है। भारतीय पुरातत्व और जेनेटिक डाटा से इस बात को पूरी दुनिया ने माना है।
इसी साल की शुरुआत में हडप्पाकालीन सभ्यता के बारे में कई नई जानकारियां सामने आई हैं। नए मिले तथ्यों और चीजों से अनुमान लगाया जा रहा है हडप्पा काल में प्रेम का विस्तृत संसार था। खुदाई के दौरान एक युगल के कंकाल मिले हैं। इसमें पुरुष अपनी महिला साथी को निहार रहा है। राखीगढ़ी में खुदाई का काम कर रहे पुणे के डेक्कन कॉलेज के पुरातत्वविदों के अनुसार, खुदाई के वक्त युवक (कंकाल) का मुंह युवती की तरफ था। यह पहली बार है जब हड़प्पा सभ्यता की खुदाई के दौरान किसी युगल की कब्र मिली है। हैरानी की बात यह है कि अब तक हड़प्पा सभ्यता से संबंधित कई कब्रिस्तानों की जांच की गई लेकिन आज तक किसी भी युगल के इस तरह दफनाने का मामला सामने नहीं आया था। पुरातत्वविदों के अनुसार, युगल कंकाल का मुंह, हाथ और पैर सभी एक समान है। इससे साफ है कि दोनों को जवानी में एक साथ दफनाया गया था।
गौरतलब है कि ये निष्कर्ष हाल ही में अंतरराष्ट्रीय पत्रिका एसीबी जर्नल ऑफ अनैटमी और सेल बायॉलजी में प्रकाशित किए गए थे। हालांकि इतिहास सिर्फ लिखित तथ्यों को मानता है लेकिन वैज्ञानिक सबूतों का ज्यादा महत्व होता है।
राखीगढ़ी में खुदाई और विश्लेषण का कार्य कॉलेज के पुरातत्व विभाग थता इंस्टिट्यूट ऑफ फरेंसिक साइंस और सोल नेशनल यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिसिन द्वारा किया गया। इससे पूर्व लोथल में खोजे गए एक हड़प्पा युगल कब्र को लेकर माना गया था कि महिला विधवा थी और उसे अपने पति की मौत के बाद दफनाया गया था।
पुरातत्वविदों का कहना है कि जिस तरह से युगल के कंकाल राखीगढ़ी में दफन मिले, उससे साफ है कि दोनों के बीच प्रेम था और यह स्नेह उनके मरने के बाद उनके कंकाल में नजर आता है। सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है कि जिन लोगों ने दोनों को दफनाया था, वे चाहते थे कि दोनों के बीच मरने के बाद भी प्यार बना रहे। उन्होंने कहा कि युगलों के दफनाने का मामला दूसरी प्राचीन सभ्यताओं में दुर्लभ नहीं है। इसके बावजूद यह अजीब है कि उन्हें अब तक हड़प्पा कब्रिस्तान में नहीं खोजा गया।
राखीगढ़ी में मिले 5000 साल पुराने कंकालों के अध्ययन के बाद जारी की गई रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि हड़प्पा सभ्यता में सरस्वती की पूजा होती थी, हवन भी होता था। खुदाई में हवनकुंड जैसी चीज़े मिली है। ऋग्वेद में वैदिक लोगों का ज़िक्र होता है। हो सकता है की वे लोग हड़प्पा सभ्यता के हों। लेकिन, प्रोफेसर शिंदे का मानना है कि हड़प्पन और वैदिक एक ही हैं। शिंदे का कहना है कि देश के टेक्स्ट बुक्स में बदलाव होना चाहिए।
प्रोफेसर शिंदे ने बताया कि इस रिसर्च की शुरुआत 2011-2012 में हुई थी जिसमें हारवर्ड यूनिवर्सिटी (Harward University) को भी शामिल किया गया था। बताया जा रहा है कि इस दौरान 3 से 4 करोड़ का रुपये का खर्च आया।