नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव 2019 के नतीजों ने कांग्रेस के जख्मों पर ऐसा नमक छिड़का है जिसकी जलन उसे अगले पांच साल तक सताती रहेगी। सत्ता में वापसी के तमाम दावों के ऐसे धुर्रे उड़े कि वह मात्र 51 सीटों पर ही सिमट गई। नतीजे उसके लिए इस हद तक हाहाकारी हैं कि लोकसभा में भाजपा के बाद सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसे नेता प्रतिपक्ष का पद तक नहीं मिल पाएगा। नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त करने के लिए कम से कम 54 सीटें जीतनी जरूरी है और कांग्रेस इससे तीन अंक पहले ही ठिठक गई।
लोकसभा में बहुमत के लिए किसी भी राजनीतिक दल को 272 सीटों की आवश्यकता होती है। भाजपा ने अकेले दम पर 302 सीटें जीती हैं। उसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को 352 सीटें मिली हैं जो प्रचंड जनादेश है। यह स्टोरी लिखे जाने तक अरुणाचल प्रदेश की अरुणाचल पश्चिमी लोकसभा सीट का नतीजा नहीं आया था पर भाजपा के किरण रिजिजु यहां निर्णयक बढ़त ले चुके हैं।
नियमानुसार लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त करने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को अकेले कम से कम 10 फीसद सीटें जीतनी होती हैं। इसका मतलब यह हुआ कि 543 सीटों वाले निचले सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा प्राप्त करने के लिए किसी भी राजनीतिक दल को कम से कम 54 सीटें जीतनी जरूरी हैं। 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को मात्र 44 सीटें प्राप्त हुई थीं, इस वजह से तब भी दूसरा सबसे बड़ा दल होने के बावजूद उसको नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला था। इसकी खीझ वह पूरे पांच साल उतारती रही। कांग्रेस के नेता सदन मल्लिकार्जुन खड़गे सरकार की कई अहम बैठकों में शामिल नहीं हुए। दरअसल, खड़गे को इन बैठकों में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर नहीं बल्कि लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता के रूप में बुलाया जाता था और जब-जब ऐसी किसी बैठक का निमंत्रण सरकार की ओर से भेजा गया, कांग्रेस अपनी नाराजगी जताने से नहीं चूकी। यही वजह रही कि खड़गे लोकपाल की नियुक्ति समेत कई अहम बैठकों में शामिल नहीं हुए। वह यह कहते हुए इन अहम बैठकों का विरोध करते रहे कि जब तक उन्हें नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं दिया जाता, वह इस तरह की बैठकों में शामिल नहीं होंगे जबकि निर्धारित व्यवस्था के अनुसार उन्हें यह दर्जा नहीं मिल सकता था।
हालांकि इस बार कांग्रेस की सीटों में इजाफा हुआ है पर यह संख्या भी नेता प्रतिपक्ष का दर्जा हासिल करने के लिए पर्याप्त नहीं है। लिहाजा इस बार भी उसको नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिल सकता। ऐसे में वह यह दर्जा हासिल करने के लिए सरकार के रहमोकरम पर निर्भर रहेगी। दरअसल, निर्धारित 10 प्रतिशत से कम सीटों के बावजूद सबसे बड़े विपक्षी दल के सदन के नेता को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देना है या नहीं ये केंद्र सरकार पर भी निर्भर करता है।
कांग्रेस की मुश्किलें यहीं पर खत्म नहीं होतीं, सीटें बढ़ने के बावजूद इस बार उसके पास अनुभवी नेताओं का अभाव है। ऐसे में उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है अपना नेता सदन (नेता संसदीय दल) चुनने की जो लोकसभा में पार्टी के नेताओं का नेतृत्व कर सके। अहम बहस, मुद्दों और मौकों पर पार्टी का पक्ष मजबूती से रख सके। इसके लिए न केवल अनुभव और जानकारी की जरूरत होती है, बल्कि उसका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए जो अन्य दलों के लिए स्वीकार्य हो और वे उसे गंभीरता से लें। मल्लिकार्जुन खड़गे कर्नाटक के गुलबर्गा से हार चुके हैं तो राहुल गांधी की किचन कैबिनेट के “स्टार” ज्योतिरादित्य सिंधिया की चुनावी नैया मध्य प्रदेश के गुना में डूब गई। सुशील शिंदे, अशोक चह्वाण, शीला दीक्षित, दिग्विजय सिंह जैसे नेता भी चुनाव हार चुके हैं जबकि राहुल गांधी के चहेते कमलनाथ ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा और वे इस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य उनके लिए सबसे बड़ी समस्या है और वे सदन में नियमित रूप से नहीं आ पाती हैं। स्वयं तीन बार सांसद रहने के बावजूद राहुल गांधी की उपस्थिति सदन में बहुत कम रही है और उनके व्यवहार से राजनीतिक अनुभव की कमी झलकती रहती है। भाजपा, शिवसेना तृणमूल कांग्रेस, बसपा, सपा समेत तमाम दल उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं। इसके अलावा अमेठी की पारंपरिक सीट पर मिली हार से हुई छीछालेदर ने भी उनका पक्ष कमजोर किया है। राहुल गांधी संभवतः स्वयं भी कांग्रेस संसदीय दल के नेता का पद नहीं लेना चाहेंगे क्योंकि यह नेता प्रतिपक्ष की तरह कैबिनेट मंत्री के दर्जे वाला पद नहीं है। लब्बोलुआब यह कि आम चुनाव के बाद केंद्र में सरकार बनाने का दावा करने वाली कांग्रेस के लिए नेता संसदीय दल चुनना भी किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
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