इस गठबंधन में कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं है, बल्कि बुआ-भतीजे ने उदारता दिखाते हुए मां-बेटे की सीटों रायबरेली और अमेठी में गठबंधन का कोई प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला किया है।
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के चुनावी रण में बुआ-भतीजा मिलकर ताल ठोकेंगे, यह अब तय हो गया है। इसी के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर इतिहास दोहराया जाएगा। लोकसभा चुनाव-2019 में भारतीय जनता पार्टी को शिकस्त देने के लिए दो धुर विरोधी दल (सपा और बसपा) एक मंच पर आ रहे हैं। सपा अध्यक्ष अखिलश यादव ने शुक्रवार को कन्नौज की चौपाल में इस नई दोस्ती का एलान भी कर दिया। भाजपा के प्रभाव को कम करने के लिए इससे पहले 1993 में मुलायम सिंह यादव ने दांव खेला था और कांशीराम के साथ गठबंधन कर उत्तर प्रदेश में भाजपा को शिकस्त दी थी। अब 25 वर्ष बाद अखिलेश और मायावती के लिए पहले जैसे नतीजे दोहराना एक बड़ी चुनौती है।
लोकसभा चुनाव-2019 की सबसे बड़ी, महत्वपूर्ण और निर्णायक बिसात उत्तर प्रदेश में बिछनी है। ऐसे में भाजपा के बिजयी रथ को रोकने की पहल भी यहीं से हुई है। सूबे की सियासत में नई इबारत लिखी जा रही है और इसके लिए सपा और बसपा ने 23 साल पुरानी दुश्मनी भुलाकर चुनावी गठबंधन तय कर लिया है। बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में गठबंधन कर रहे हैं। शनिवार को यहां संवाददात सम्मेलन में दोनों नेता इसकी विधिवत घोषणा करेंगे। इसके बाद यह तय किया जाएगा कि कौन सा दल किस लोकसभा सीट पर अपना उम्मीदवार उतारेगा। खास बात यह है कि इस गठबंधन में देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं है, बल्कि बुआ-भतीजे ने उदारता दिखाते हुए मां-बेटे (सोनिया गांधी और राहुल गांधी) की सीटों रायबरेली और अमेठी में गठबंधन का कोई प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला किया है। सूत्रों के अनुसार समझौते के अनुसार बसपा 37, सपा 36 जबकि अजित सिंह का रालोद तीन सीटों पर चुनाव लड़ेगा। पीस पार्टी और निषाद पार्टी को भी एक-एक सीट दी जा सकती है।
25 साल पहले जब साप और बसपा ने हाथ मिलाया था, वह दौर मंडल का था जिसने न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश के पिछड़ों को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया था। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के बड़े नेता बनकर उभरे थे। राम मंदिर आंदोलन के चलते मुस्लिम भी उनके साथ थे। दूसरी ओर बसपा सुप्रीमो कांशीराम दलित और ओबीसी जातियों के नेता बनकर उभरे थे। जब दोनों ने हाथ मिलाया तो सामाजिक न्याय की उम्मीद जगी थी। इसी का नतीजा था कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई थी। 1993 में उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। 422 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। दोनों ने संयुक्त रूप से 420 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे जिनमें से 176 पर विजयी रहे। विशुद्ध रूप से जातीय गणित के आधार पर बने गठबंधन के बावजूद भाजपा ने अकेले दम पर 177 सीटें जीती थीं। इस पर सपा और बसपा ने भाजपा को सरकार बनाने से रोकने के लिए अन्य दलों को साथ मिलाया था। चार दिसंबर 1993 को मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा-बसपा की सरकार बनी थी। यहा गठबंधन 1995 में कई अप्रिय पड़ावों से गुजरते हुए टूट गया। इसी के साथ पिछड़ों और दलितों के बीच दरार पड़ गई जो लगातार चौड़ी हौती गई। दूसरी ओर भाजपायह उत्तर प्रदेश में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों को अपने साथ मिलाने में कामयाब रही। इसी का नतीजा रहा कि 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा अपनी लाज बचाने लायक सीटें बमुश्किल जीत पायी जबकि बसपा को सूपड़ा ही साफ हो गया। 2014 के विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा दोनों की दुर्गति हुई। सपा और बसपा की मौजूदा नजदीकी को इसी का नतीजा माना जा रहा है क्योंकि इस बार दोनों का दुश्मन (भाजपा) साझा है।
सपा-बसपा गठबंधन के साथ आने को आतुर राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने अपने कोटे की सीटों का फैसला अखिलेश यादव और मायावती पर छोड़ दिया है। रालोद के अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने शुक्रवार को कहा कि लखनऊ में होने वाली मायावती और अखिलेश यादव की शनिवार के होने वाली साझा प्रेस कान्फ्रेंस की जानकारी उनको नहीं है। साथ ही जोड़ा कि हम महागठबंधन का हिस्सा हैं। हमने अभी तक सीटों पर चर्चा नहीं की है। अब तो मायावती जी और अखिलेश जी तय करेंगे कि कांग्रेस के साथ गठबंधन होगा या नहीं।
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