सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “जिनको पहले लाभ मिल गया वे ही लाभ लिए जा रहे हैं बाकी उसके इंतजार में हैं। इस वजह से आरक्षित वर्ग के दूसरे लोगों में असंतोष व्याप्त हो रहा है।”
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि सरकार को इन चीजों की फिर से समीक्षा करनी चाहिए। आरक्षण प्रदान करने के लिए अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित और सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पुरानी सूची पर काम करते रहना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। सरकार को अब ऐसी सूची को संशोधित करना चाहिए क्योंकि 70 साल पहले जिन लोगों को इस सूची में रखा गया था अब वे हर तरह से संपन्न हो चुके हैं। ऐसे लोगों की वजह से अब आरक्षण का असली लाभ उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है जिनको आज के समय में इसकी आवश्यकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण के परिदृश्य से उत्पन्न चुनौतियों से निबटने के लिए निर्वाचित सरकार के पास “राजनीतिक इच्छा शक्ति” का होना बहुत ही कठिन है, जहां न तो इस लाभ के हकदारों की सूची की समीक्षा की गई है और न ही आरक्षण का प्रावधान खत्म हुआ है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि सरकार को आरक्षण की पात्रता वाली सूचियों में संशोधन करने की आवश्यकता है ताकि आरक्षण का लाभ जरूरतमंदों तक पहुंच सकें। सरकार को ऐसी सूची में अब ऐसे लोगों को रखना चाहिए जो जरूरतमंद हैं और जिनको आरक्षण की आवश्यकता है।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आदिवासी इलाकों के स्कूलों में शिक्षकों के 100 फीसदी पद अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित करने के जनवरी 2000 के अविभाजित आंध्र प्रदेश सरकार के आदेश को निरस्त करते हुए अपने फैसले में ये टिप्पणियां कीं।
शीर्ष अदालत ने कहा कि पिछले 70 सालों में कुछ समुदायों द्वारा आरक्षण का लाभ उठाया जा रहा है और वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से ठीकठाक हो चुके हैं मगर अभी भी उसी वर्ग के बाकी लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है क्योंकि पहले से लाभ ले रहे लोगों की वजह से ये लाभ नीचे के लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है। अदालत ने कहा, “जिनको पहले लाभ मिल गया वे ही लाभ लिए जा रहे हैं बाकी उसके इंतजार में हैं। इस वजह से आरक्षित वर्ग के दूसरे लोगों में असंतोष व्याप्त हो रहा है।” शीर्ष अदालत ने कहा कि आरक्षित सूची में शामिल ऐसे सभी लोगों को इसका लाभ मिलना चाहिए और इसे स्थानीय सरकारों को तय करना है। आरक्षित वर्ग के भीतर असंतोष है जिसे सूची को संशोधित करके संतोषजनक किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में दाखिल किए गए एक मामले की सुनवाई करते हुए अपना ये फैसला सुनाया। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अविभाजित आंध्र प्रदेश के जनवरी 2000 के उस आदेश को रद्द कर दिया जिसमें अनुसूचित क्षेत्रों के स्कूलों में शिक्षकों के पद के लिए अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को 100 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा- यह “मनमाना” है और संविधान के तहत इसकी “अनुमति नहीं है”।
संविधान पीठ ने कहा कि 100 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करना “अनुचित” और “अनुचित” होगा और कोई कानून यह नहीं कहता है कि अनुसूचित क्षेत्रों में केवल आदिवासी शिक्षक ही पढ़ा सकते हैं। अदालत ने1992 के इंद्रा साहनी के फैसले का उल्लेख करते हुए ये फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया गया कि संस्थापक पिता ने कभी भी सभी सीटों के आरक्षण की परिकल्पना नहीं की है और 50 प्रतिशत कोटा नियम होगा। यह नोट किया गया कि 1992 के फैसले के अनुसार, अत्यधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता है और 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की सीमा के लिए विशेष मामला बनाया जाना है।
पीठ में शामिल न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी, विनीत सरन, एमआर शाह और अनिरुद्ध बोस ने कहा कि अनुसूचित क्षेत्रों में 100 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने के लिए ऐसी कोई असाधारण परिस्थितियां नहीं थीं। यह एक अप्रिय विचार है कि आदिवासियों को केवल आदिवासियों को पढ़ाना चाहिए। जब अन्य स्थानीय निवासी हैं, तो वे क्यों नहीं पढ़ा सकते हैं, यह समझ में नहीं आता है। उन्होंने कहा कि कार्यवाही तर्क को धता बताती है और मनमानी है। आरक्षण प्रदान करके मेरिट को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
संविधान पीठ ने कहा कि 100 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने वाला आदेश “मनमाना, अवैध, अविवेकी और असंवैधानिक है।”।सरकार का आदेश है कि अनुसूचित क्षेत्रों में केवल अनुसूचित जनजाति के शिक्षकों को ही नियुक्त किया जाएगा। राज्य का आदेश सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करता है।
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