बहुमुखी प्रतिभा के धनी महान समाज सुधारक और महिलाओं के मसीहा ईश्वरचंद्र विद्यासागर29 जुलाई 1891 को इस महान आत्मा ने 70 साल की उम्र में इस संसार को अलविदा कह दिया। नारी उत्थान के लिए जो कार्य उन्होंने किया उसके लिए भारतीय समाज चिरकाल तक उन्हें याद करता रहेगा।
18व़ी और19वीं सदी का दौर वह दौर था जब 10-12 साल की बच्चियों को और किशोरियों को अधेड़ उम्र के पुरुषों के साथ ब्याह दिया जाता था। ये बच्चियां और किशोरियां प्राय: छोटी उम्र में विधवा हो जाती थीं। विधवा होने के बाद शुरू होता था इनका उत्पीड़न का दौर। घर-परिवार में और समाज द्वारा इन्हें नाना प्रकार की मानसिक और शारीरिक यातनाएं दी जाती थीं।
ऐसे समय में जन्म हुआ महान समाज सुधारक और महिलाओं के मसीहा ईश्वरचंद्र विद्यासागर का, जिन्हें आज भी महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए एक क्रांतिकारी समाज सुधारक के रूप में याद किया जाता है।
ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक महान प्रकाशक, उद्यमी, लेखक, समाज सुधारक, अनुवादक और विचारक थे। उनका जन्म २६ सितम्बर1820 को एक गरीब बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक ऐसे समाज सुधारक थे जो अपने विचारों को सिर्फ भाषणों या लेखन तक सीमित नहीं रखते थे, बल्कि खुद उन पर अमल भी करते थे।
महिलाओं की स्थिति सुधारने में योगदान:
महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए किये क्रांतिकारी समाज – खासकर विधवाओं की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किये और उन्हीं की बदौलत समाज में क्रांतिकारी बदलाव संभव हो पायें। उन्होंने विधवा विवाह के लिए भरसक कोशिशें की।
यह ईश्वरचंद विद्यासागर की कोशिशों का नतीजा ही था कि 1856 में विधवा विवाह कानून पास हुआ जिससे विधवाओं को शादी करने का कानूनन अधिकार मिला। सन1856 से1860 के बीच उन्होंने 25 विधवाओं का पुनर्विवाह करवाया ।
जहाँ उन्होंने बहुविवाह और बाल विवाह का विरोध किया, वहीँ महिलाओं की शिक्षा के भी वे प्रबल समर्थक थें। बंगाल में कई लड़कियों के स्कूल खोलने का श्रेय उन्हें ही जाता है। बैथून स्कूल की स्थापना भी उन्होंने ही की।
आधुनिक बँगला भाषा के जनक
समाज सुधारक होने के साथ-साथ ईश्वरचंद्र एक शिक्षक और लेखक भी थे। उन्हें आधुनिक बंगाली भाषा के जनक के रूप में भी जाना जाता है। बंगाली वर्णमाला में उन्होंने कई महत्वपूर्ण बदलाव किये और उसे सरल बनाया।
उनकी बंगाली किताब “बोर्नो पोरिचोय” आज भी उत्कृष्ट किताबों की श्रेणी में आती है। बंगाली के अलावा वो संस्कृत के भी प्रकांड ज्ञानी थे और संस्कृत भाषा में भी उनका उल्लेखनीय योगदान रहा।
29 जुलाई1891 को इस महान आत्मा ने 70 साल की उम्र में इस संसार को अलविदा कह दिया। नारी उत्थान के लिए जो कार्य उन्होंने किया उसके लिए भारतीय समाज चिरकाल तक उन्हें याद करता रहेगा।