पाण्डव गुरुकुल में अध्ययनरत थे। आचार्य द्रोण ने एक पाठ पढ़ाया- सत्यम वद् अर्थात सत्य बोलो। इसके बाद अपने शिष्यों से इसे याद करने को कहा। अगले दिन सभी 104 कौरव और पाण्डव कक्षा में आये लेकिन युधिष्ठिर नहीं आये। आचार्य द्रोण बीते दिवस का कठस्थ पाठ सभी से सुना और आगे की शिक्षा प्रारम्भ कर दी।
यही क्रम कई दिनों तक चलता रहा। लगभग एक पखवाड़े के बाद की कक्षा में युधिष्ठिर भी सम्मिलित हुए। तब द्रोणाचार्य ने उनसे पूछा कि युधिष्ठिर इतने दिनों तक शिक्षा में शामिल क्यों नहीं हो रहे थे? कहां व्यस्त थे। इस पर युधिष्ठिर ने कहा कि प्रथम पाठ याद कर रहा था। जब तक पहला पाठ पूर्णतः याद न हो जाये तो आगे की शिक्षा कैसे सफल हो सकती है। गुरुदेव ने पूछा कि इतना छोटा सी बात की सदा सत्य बोलो को याद करने में इतना अधिक समय? तो युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, हे गुरुदेव, सिर्फ कठस्थ करने से पाठ जीवन में नहीं उतर पा रहा था। इसे अभ्यास के द्वारा जीवन में सम्मिलित करने का प्रयास कर रहा था। अब मैं आश्वस्त हो गया हूं कि मैं सदा सत्य ही बोलूंगा। इसी से आज कक्षा में नयी शिक्षा के लिए उपस्थित हो गया हूं।
महात्मा युधिष्ठिर जैसे विराट व्यक्तित्व को एक पाठ याद करने में इतना समय लग गया। लेकिन इन दिनों ग्रन्थों, पुराणों, महाकाव्यों का सारा ज्ञान सोशल मीडिया पर तैरता नज़र आता है। हर कोई इस ज्ञान को बांटने में लगा है। फेसबुक और व्हाट्सएप ने इसकी गति को सुपरसोनिक रॉकेट जैसे पंख लगा दिये हैं। बस कोई इस ज्ञान को अपने पास रख नहीं रहा है। जैसे ये ज्ञान एक जलता हुआ अंगारा हो। कि आपकी झोली में आया तो जल जाओगे। बस तत्काल दूसरे की गोद में उछाल दो और खुद ‘सुरक्षित’ हो जाओ। वस्तुतः ज्ञान अंगारा ही तो है। तभी तो अंधेरे में भी चमकता है। ज्ञान का तेज ज्ञानी के चेहरे की आभा को कई गुणा बढ़ा देता है।
ज्ञान का अर्जन एक साधना है तो उसको खुद में समाहित करने की कला एक यज्ञ। ज्ञान यज्ञ की अग्नि की ज्वाला पात्र को निखारती तो है लेकिन इसके लिए व्यक्ति को इसी तपिश झेलनी ही पड़ती है। कहते हैं – विद्या ददाति विनयम्। अर्थात विद्या और ज्ञान से विनय की उत्पत्ति होती है। लेकिन आज के परिदृश्य में विनयशील होने के अपने खतरे भी हैं।
डर होता है कि यदि विनयशील हो गये तो फलदार वृक्ष की तरह पत्थर खाने होंगे। समाज की बेकार बहस में शामिल नहीं होंगे या बातों को हंसकर टाल देंगे तो कोई बेशर्म कहेगा तो कोई निर्लज्ज। लोगों के निराधार आरोपों और शंकाओं पर सफाई नहीं देंगे तो लोग आपकी ‘‘आंख में सुअर का बाल’’ बता देंगे। शिव की भांति समाज के कल्याण के लिए विषपान करना होगा।
अब जब ज्ञानी बनने या ज्ञान को आत्मसात करने में इतने खतरे हैं तो कौन ज्ञानी होना चाहेगा? लेकिन अज्ञानी होना तो और बड़ा अभिशाप है। फिर कोई अभिशप्त होना भी नहीं चाहता। बड़ी दुविधा है, लेकिन तकनीकि के इस दौर में सोशल मीडिया ने एक मध्यमार्ग दिखा दिया है। वह है ज्ञानी बनो मत, लेकिन ज्ञानी दिखो अवश्य। ….अच्छा बनो मत, लेकिन अच्छा दिखो अवश्य।
बस, इसी कारण से इन दिनों एक अंधी दौड़ शुरू हो गयी है स्वयं को ज्ञानी दिखाने की। इधर मोबाइल फोन में ‘ज्ञान’ पहुंचा, घण्टी बजी कि तत्काल इसे फारवर्ड कर दो। अन्य लोगों को बता दो कि हम ज्ञानी हैं, अज्ञान से अभिशप्त नहीं। इसीलिए समाज में हर मोबाइल, कम्प्यूटर में से ज्ञान की गंगा बह रही है। लोग गोते लगा रहे हैं लेकिन दूसरे को फारवर्ड करते ही यह ज्ञान उसी तरह सूख जाता है जैसे गंगा स्नान के बाद किनारे आते ही हवा के झोंके आपके बदन से पानी की एक-एक बूंद सुखा देते हैं।
काश! आज के सभी ‘ज्ञानी’ जीवन में बस, युधिष्ठिर की तरह केवल जीवन के पहले पाठ को ही आत्मसात कर लेते तो ‘भारत विश्व गुरू’ होता।
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