डॉ अनामिका श्रीवास्तवडॉ अनामिका श्रीवास्तव

— बदायूं की बेटी से एक खास मुलाकात

तीस साल पहले की और आज की रिपोर्टिंग में जमीन-आसमान का फर्क है। पहले केवल प्रिंट था या फिर ऑडियो-वीडियो, वह भी सीमित मात्रा में। इसके विपरीत आज सोशल मीडिया भी है। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और यूट्यूब जैसे माध्यम मौजूद हैं। ये पल भर में आपकी इज्जत को अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं।

विष्णु देव चांडक, बदायूं। 23 नवम्बर 1965 को बदायूं शहर के मुहल्ला पटियाली सराय में जन्मी डॉ अनामिका श्रीवास्तव ने अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं प्रदेश स्तर के एक दर्जन से अधिक पुरस्कारों को प्राप्त करने के साथ-साथ गायक कलाकार के रूप में जो ख्याति प्राप्त की है, वह बदायूं वासियों के लिए ही नहीं बल्कि देशवासियों के लिए भी एक बड़ी उपलब्धि है।

उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा राजाराम इंटर कालेज और केदारनाथ इंटर कालेज में प्राप्त की। इसके बाद उच्च शिक्षा हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। एमए राजनीतिशास्त्र में विश्वविद्यालय में वह तीसरे स्थान पर रहीं। जेआरएफ प्राप्त कर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से कम्युनल वायलेंस एंड रोल ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन पर पीएचडी की जिसमें उनके गाइड पूर्व डीजीपी श्रीराम अरुण रहे।

डॉ अनामिका की पहली किताब 1996 में रावत पब्लिकेशन्स जयपुर ने प्रकाशित की। वर्ष 1992 में आकाशवाणी लखनऊ में कार्य शुरू किया। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों के अलावा वर्ष 2010 में बच्चों के लिए मीडिया के माध्यम से कार्य करने के लिए न्यूयार्क में यूनिसेफ द्वारा अंतराष्ट्रीय आईसीडीबी पुरस्कार भी दिया गया है। आपकी दूसरी पुस्तक अवधी लोक धरोहर वर्ष 2017 में प्रकाशित हुई। वर्ष 2022 में कविता संग्रह शब्दनाद प्रकाशित हुआ। दिव्यांगों के लिए कार्य करने के लिए “उत्तर प्रदेश सरकार सम्मान,“ “लोकमत सम्मान“ सहित अनेक पुरस्कारों से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है।

90 के दशक में मित्र प्रकाशन की मासिक पत्रिका माया में उप सम्पादक के पद से अपने कैरियर की शुरुआत कर वर्तमान में ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ में प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव की जिम्मेदारी बखूबी निभाने वाली डॉ अनामिका श्रीवास्तव ने पत्रकारिता को अपना कैरियर बनाने के संबंध में कहा, “आप क्या बनना चाहते हैं और क्या बनते हैं यह आपके वश में नहीं होता है।” कभी नहीं सोचा था की मीडिया में नौकरी करूगी। इलाहाबाद गयी, एमए किया, वकालत पढ़ी, सोचा कि न्यायिक सेवा में जाएंगे या आईएएस बनेंगे। 1990 में आकाशवाणी में चयन हुआ पर ज्वाइन नहीं किया। मित्र प्रकाशन की मासिक पत्रिका माया में बतौर उप सम्पादक कॅरियर की शुरुआत कर 1992 में आकाशवाणी ज्वाइन कर ली। फिर पीएचडी की और उसके बाद दो साल का अवकाश लेकर रायबरेली के डिग्री कालेज में बतौर प्रोफेसर डेढ़ साल पढाया भी। वातावरण पसंद न आने पर पुनः आकाशवाणी में वापस आ गईं। 1994 में आईएएस में असफलता तो मिली मगर पढाने की ललक ने साथ नहीं छोड़ा। यही वजह रही कि इग्नू में विजिटिंग प्रोफेसर बतौर जर्नलिज्म को पढ़ाना जारी रखा।

डॉ अनामिका के विषद अनुभव और जीवन-यात्रा पर हमने उनसे लम्बी बातचीत की। वर्तमान पत्रकारिता और तीस साल पहले की पत्रकारिता में फर्क पर उन्होंने बेबाक-सारगर्भित विचार व्यक्त किए।

डॉ अनामिका का कहना है कि आज अगर कोई हादसा होता है तो रिपोर्टर पीड़ित से पूछता है कि आपको कैसा लग रहा है? पहले ऐसा नहीं था, मानवीय मूल्यों को जगह दी जाती थी। आज ऐसे पत्रकारों की गिनती नगण्य है। पहले संसाधन सीमित थे पर पत्रकारों में विनम्रता थी। सीखने की जिज्ञासा थी, अपने वरिष्ठों के प्रति सम्मान था, जो आज नहीं है। आज कम्यूनिकेशन में मास्टर डिग्री हासिल किए हुए कई छात्र-छात्राओँ को प्रिंट मीडिया में सही से रिपोर्ट बनाना भी नहीं आती। अगर कोई टॉपिक दिया भी जाए तो फौरन गूगल बाबा की शरण में पहुंच जाते हैं जबकि तीस साल पहले लोग अखबार की कतरनें संभाल कर रखते थे। फ्री स्टडी करते थे। वैचारिक शब्दकोष मजबूत रखते थे। कोई खबर होती तो उसकी तह तक पहुंचकर सच बाहर लाने का प्रयास करते थे। बेहतर साहित्य पढ़कर शब्दभंडार बढ़ाते थे। यूं कहा जाए तो विचार भी तथ्यात्मक ही होते थे जो हमें मजबूती प्रदान करते थे। कभी कुछ पूछना हुआ सीखना हुआ तो आलोक पंत, पुष्पेश पंत, एचएम जैन, डीके गौतम जैसे महारथी थे। लेकिन, आज सिर्फ गूगल बाबा ही मुश्किल घड़ी में सहारा मालूम पड़ते हैं।

तीस साल पहले और आज की रिपोर्टिंग में जमीन-आसमान का फर्क है। पहले केवल प्रिंट था या फिर ऑडियो-वीडियो, वह भी सीमित मात्रा में। इसके विपरीत आज सोशल मीडिया भी है। फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और यूट्यूब जैसे माध्यम मौजूद हैं। ये पल भर में आपकी इज्जत को अर्श से फर्श पर और फर्श से अर्श पर पहुंचा सकते हैं। ऐसे माहौल में स्वयं का आकलन किए बगैर महज कुछ प्रलोभन वश की गई पत्रकारिता अपनी गरिमा को धूल-धूसरित करती जा रही है।

वर्तमान में समाचार जगत में विश्वसनीयता बनाए रखने के संदेश को प्रचारित करते हुए उन्होंने नई पीढ़ी को कहा कि आज सभी को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास होना परमावश्यक है। हमें सोचना चाहिए कि जो खबर हम प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या सोशल मीडिया के जरिए प्रसारित कर रहे हैं, आखिर उसका क्या परिणाम किसी व्यक्ति विशेष के भविष्य पर होगा? समाज को यह समाचार कैसे प्रभावित कर सकता है? यदि हम इन बातों पर पहले मनन करते हैं, इसके बाद किसी समाचार का प्रकाशन करते हैं तो निःसंदेह पत्रकारिता की विश्वसनीयता बनी रहेगी। साथ ही यह कदम आपकी इज्जत और मान-मर्यादा की बृद्धि में भी सहायक होगा।

डॉ अनामिका श्रीवास्तव लखनऊ में रहकर पत्रकारिता की विश्वसनीयता बनी रहे, इस पर कार्य करने का मन बना रही हैं।

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