अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करने का मामला तीन माह में निपटाएं

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अल्पसंख्यक की परिभाषा और अल्पसंख्यकों की पहचान के दिशा निर्देश तय करने की मांग पर सुनवाई कर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को यह निर्देश जारी किया।

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को निर्देश दिया है कि वह अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करने के ज्ञापन को तीन महीने मे निपटाए। भाजपा नेता अश्वनी कुमार उपाध्याय ने देश की शीर्ष अदालत से परिभाषा तय करने की मांग करते हुए कहा था कि उन्होंने आयोग को ज्ञापन दिया था लेकिन उसने कुछ नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को अल्पसंख्यक की परिभाषा और अल्पसंख्यकों की पहचान के दिशा निर्देश तय करने की मांग पर सुनवाई कर यह निर्देश जारी किया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले की सुनवाई की।

उपाध्याय की जनहित याचिका में पहली मांग है कि सिर्फ वास्तव में अल्पसंख्यकों को ही अल्पसंख्यक संरक्षण दिया जाए। याचिका में मांग की गई है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम की धारा 2(सी) को रद्द किया जाए क्योंकि यह धारा मनमानी, अतार्किक और अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है। इस धारा में केंद्र सरकार को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के असीमित और मनमाने अधिकार दिए गए हैं। साथ ही यह मांग भी की गई है कि केंद्र सरकार की 23 अक्टूबर 1993 की उस अधिसूचना को रद किया जाए जिसमें पांच समुदायों मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किया गया है।

तीसरी मांग में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को निर्देश दे कि वह अल्पसंख्यक की परिभाषा तय करे और अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशानिर्देश बनाए, ताकि यह सुनिश्चित हो कि सिर्फ उन्हीं अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद 29-30 में अधिकार और संरक्षण मिले जो वास्तव में धार्मिक, भाषाई, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली न हों और जो संख्या में बहुत कम हों।

याचिकाकर्ता ने वैकल्पिक मांग भी रखी

याचिकाकर्ता उपाध्याय ने इस मांग के साथ वैकल्पिक मांग भी रखी है। इसमें कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं ही आदेश दे कि संविधान के अनुच्छेद 29-30 के तहत सिर्फ उन्हीं वर्गों को संरक्षण और अधिकार मिलेगा जो धार्मिक, भाषाई, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नहीं हैं और जिनकी संख्या राज्य की कुल जनसंख्या की एक फीसद से ज्यादा नहीं है। सिर्फ उन्हीं अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद 29-30 में अधिकार और संरक्षण मिले जो वास्तव में धार्मिक और भाषाई तौर पर बहुत कम हों।

याचिका में सुप्रीम कोर्ट के टीएमए पाई मामले में दिए गए संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए कहा गया है कि अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जाए न कि राष्ट्रीय स्तर पर क्योंकि कई राज्यों में जो वर्ग बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। इसमें कहा गया है कि सरकार तकनीकी शिक्षा में 20,000 रुपये छात्रवृत्ति देती है। जम्मू-कश्मीर में मुसलमान 68.30 प्रतिशत यानी बहुसंख्यक हैं लेकिन सरकार ने वहां 753 में से 717 छात्रवृत्ति मुस्लिम विद्यार्थियों को आवंटित की हैं जबकि एक भी हिन्दू को छात्रवृत्ति नहीं दी गई है।

यहां मुसलमान हैं बहुसंख्यक

याचिका में उपाध्याय ने अल्पसंख्यों की आबादी का राज्यवार ब्योरा भी दिया है। इसमें कहा गया है कि मुसलमान लक्ष्यदीव में 96.20 प्रतिशत और जम्मू-कश्मीर में 68.30 फीसदी होते हुए बहुसंख्यक हैं जबकि असम में 34.20 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल में 27.5 फीसदी, केरल में 26.60 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 19.30 प्रतिशत और बिहार में 18 प्रतिशत होते हुए अल्पसंख्यकों के दर्जे का लाभ उठा रहे हैं। दूसरी ओर जो वास्तव में अल्पसंख्यक हैं उन्हें पहचान न होने के कारण लाभ नहीं मिल रहा है। इसलिए सरकार की अधिसूचना मनमानी है।

यहां सिख हैं बहुसंख्यक

पंजाब मे सिख बहुसंख्यक हैं जबकि दिल्ली, चंडीगढ़ और हरियाणा में भी अच्छी संख्या मे है लेकिन वे अल्पसंख्यक माने जाते हैं

यहां ईसाई हैं बहुसंख्यक

ईसाई मिजोरम, मेघालय, नगालैंड में बहुसंख्यक हैं जबकि अरुणाचल प्रदेश, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल मे भी इनकी संख्या अच्छी-खासी है, इसके बावजूद ये अल्पसंख्यक माने जाते हैं।

gajendra tripathi

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