राहुकाल क्या हैसमुद्र मंथन के समय जब भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए तो देवों और दानवों में पहले अमृतपान करने को लेकर विवाद छिड़ गया। धन्वंतरि जी ने भगवान विष्णु का स्मरण कर देवों और दानवों के बीच हो रहे झगड़े को समाप्त करने की प्रार्थना की। दानव अमृत पी कर कहीं अमर न हो जाएं, यह सोचकर सृष्टि की रक्षा के प्रति नारायण की भी चिंता बढ़ने लगी। परिस्थिति को अति संवेदनशील मानते हुए श्रीविष्णु ने विश्वमोहिनी रूप धारण किया तथा दानवों को मोहित करके देवों और दानवों में अमृत का बराबर-बराबर बंटवारा करने का प्रस्ताव रखा। दैत्यों ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।

दोनों पक्ष पंक्तिबद्ध होकर अलग-अलग बैठ गए। दैत्यों का सेनापति राहु बहुत बुद्धिमान था। वह वेश बदल कर देवताओं की पंक्ति में जा बैठा। जैसे ही राहु ने अमृतपान किया, सूर्य और चंद्र ने उसे पहचान लिया, जिसके परिणामस्वरूप नारायण ने सुदर्शन चक्र से राहु का गला काट दिया। तब तक अमृत की कुछ बूंदें राहु के गले से नीचे उतर चुकी थीं और वह अमरता प्राप्त कर चुका था।

कालगणना के अनुसार राहुकाल

राहु के सिर कटने के समय को ‘राहुकाल’ कहा गया, जो अशुभ माना जाता है। इस काल में आरम्भ किये गए कार्य-व्यापार में काफी दिक्कतों के बाद कामयाबी मिलती है, इसलिए इस काल में कोई भी नया कार्य आरम्भ करने से बचना चाहिए। राहु का सिर कटने की घटना सायंकाल की है, जिसे पूरे दिन के घंटा, मिनट का आठवां भाग माना गया।

कालगणना के अनुसार किसी भी जगह के सूर्योदय के समय से सप्ताह के पहले दिन सोमवार को दिनमान के आठवें भाग में से दूसरा भाग, शनिवार को दिनमान के आठवें भाग में से तीसरा भाग, शुक्रवार को आठवें भाग में से चौथा भाग, बुधवार को पांचवां भाग, गुरुवार को छठा भाग, मंगलवार को सातवां तथा रविवार को दिनमान का आठवां भाग राहुकाल होता है । किसी बड़े तथा शुभ कार्य के आरम्भ के समय उस दिन के दिनमान का पूरा मान घंटा, मिनट में निकालें, उसे आठ बराबर भागों में बांट कर स्थानीय सूर्योदय में जोड़ दें, आपको शुद्ध राहुकाल ज्ञात हो जाएगा। जो भी दिन होगा, उस भाग को उस दिन का राहुकाल मानें।

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