बरेली लाइव (लाइफस्टाइल डेस्क)। सनातन धर्म के अनुयायी शनिवार को पीपल वृक्ष की पूजा करते हैं। साथ ही पीपल वृक्ष की जड में जल चढ़ाना और इसकी परिक्रमा करना भी शुभ माना जाता है। यह भी माना जाता है कि पीपल वृक्ष़ की पूजा करने से कुण्डली में शनि का दोष शान्त होता है और शनि की महादशा का असर व्यक्ति पर नहीं होता। मान्यता है कि पीपल वृक्ष़ की पूजा से शनि देव प्रसन्न होते हैं। साथ ही व्यक्ति की आर्थिक परेशानियां भी दूर होती हैं।
पंडित डॉ. नरेश चन्द्र मिश्रा ने इस बारे में एक कथा सुनायी। डॉ. मिश्रा ने बताया कि देवासुर संग्राम में असुरों के राजा वृत्तासुर के आगे देवगण असहाय से हो गए थे। इसके बाद देवताओं को ज्ञात हुआ कि यदि पृथ्वी पर तपस्यारत महर्षि दधीचि की अस्थियों का अस्त्र (वज्र) बनाकर वृत्तासुर पर प्रहार किया जाए तो उसका विनाश हो जाएगा। इस पर देवराज इंद्र स्वयं महर्षि दधीचि के सम्मुख प्रस्तुत हुए और जग कल्याण हेतु उनसे देहदान करने की याचना की।
दधीचि का देहदान
उस समय महर्षि दधीचि की उम्र मात्र 31 वर्ष और उनकी धर्मपत्नी की उम्र 27 वर्ष तथा गोद में नवजात बच्चे की उम्र मात्र 3 वर्ष थी। देवराज इन्द्र की याचना और देवताओं पर आये संकट के निवारण हेतु महर्षि दधीचि देहदान करने के लिए तत्पर हुए और योगबल से अपने प्राण त्याग दिये। देवताओं ने उनकी अस्थियां प्राप्तकर मांसपिंड को उनकी पत्नी को दाह हेतु दे दिया।
दाह संस्कार के समय महर्षि दधिचि की पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर सकीं। उन्होंने पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख दिया और स्वयं चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़पकर चिल्लाने लगा। जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों (फल) को खाकर सुरक्षित रहा।
एक दिन देवर्षि नारद वहां से गुजरे तो बालक को देखा और उसे उसका परिचय देते हुए पूरी बात बताई। बालक ने पूछा कि उसके पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था तो नारद जी ने बताया कि उनपर शनिदेव की महादशा थी। छोटा सा बालक बोला, यानि उसके ऊपर आई विपत्ति का कारण शनिदेव की महादशा थी।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने बालक का नामकरण कर उसका नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया। नारद जी के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद जी के बताये अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति मांगी।
ब्रह्मा जी से वर मिलने पर बालक पिप्पलाद ने सर्वप्रथम शनि देव का आवाह्न किया और उनके सामने आते ही आंखें खोलकर भस्म करना शुरू कर दिया। शनिदेव को इस प्रकार जलता देख ब्रह्माण्ड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देवता असफल हो गये तो सूर्यदेव ने ब्रह्मदेव से प्रार्थना की। ब्रह्मा जी स्वयं पिप्पलाद के सम्मुख प्रकट हुए और शनिदेव को छोड़ने की बात कही, साथ ही उन्होंने दो और वरदान मांगने की बात कही।
इस पर पिप्पलाद ने दो वरदान मांगे-
पहला : जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा, जिससे कोई और बालक उसके जैसा अनाथ न हो।
दूसरा : मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा, उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया, तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके मुक्त कर दिया। इससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे, तभी से शनि “शनैःचरति यः शनैश्चरः“ अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
संप्रति : पीपल वृक्ष की पूजा और शनि की मूर्ति काली होने का यही धार्मिक कारण माना जाता है।