अनुवंदना माहेश्वरी, लाइफस्टाइल डेस्क। माहेश्वरी समाज का प्रमुख पर्व है महेश नवमी। प्रति वर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को महेश नवमी पर्व मनाया जाता है। इसी दिन भगवान शिव और माता पार्वती के वरदान से माहेश्वरी समाज की उत्पति हुई थी। महेश नवमी को देवाधिदेव महादेव शिव और जगत जननी माता पार्वती की आराधना की जाती है।
यहां पढ़ें महेश नवमी की विस्तृत कथा-
महेश नवमी कथा : दिल्ली के लगभग 250 कोस पश्चिम दिशा में खण्डेला नामक राज्य में चौहान वंश के क्षत्रिय राजा खडगसेन राज करते थे। उनके राज्य में छोटी-छोटी 72 जागीरें थीं। इनके जागीरदार उमराव कहलाते थे। प्रजा राजा से प्रसन्न थी। राजा और प्रजा धर्म के कार्यों में संलग्न थे। इसके बावजूद राजा को एक दुःख था कि उनके कोई संतान नहीं थी। राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से कामेष्टि यज्ञ करवाया। ऋषियों-मुनियों ने राजा को एक अत्यंत वीर एवं पराक्रमी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया। साथ ही यह भी कहा पुत्र की आयु 16 वर्ष की होने तक उसे उत्तर दिशा में जाने से रोकना होगा।
नौवें माह प्रभु कृपा से पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा ने धूमधाम से नामकरण संस्कार करवाया और उस पुत्र का नाम सुजान कंवर रखा। ज्योतिषियों ने बताया कि सुजान कुंवर का 16वां साल बहुत मृत्युतुल्य कष्टकारी होगा। देखते ही देखते सुजान कुंवर बड़ा होने लगा। वह वीर, तेजस्वी व समस्त विद्याओं में शीघ्र ही निपुण हो गया।
एक दिन एक जैन मुनि उस गांव में आए। उनके उपदेश से कुंवर सुजान बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और प्रवास के माध्यम से जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। धीरे-धीरे लोगों की जैन धर्म में आस्था बढ़ने लगी। स्थान-स्थान पर सनातन के स्थान पर जैन मंदिरों का निर्माण होने लगा। सुजान कुंवर को यज्ञादि में हिंसा प्रतीत होने लगी। इस बीच 16वें वर्ष के आरम्भ में ही उसका विवाह हो गया।
एक दिन राजकुमार शिकार खेलने वन में गए और अचानक ही राजकुमार उत्तर दिशा की ओर जाने लगे। सैनिकों के मना करने पर भी वे नहीं माने। उत्तर दिशा में सूर्य कुंड के पास ऋषि यज्ञ कर रहे थे। वेद ध्वनि से वातावरण गुंजित हो रहा था। यह देख राजकुमार क्रोधित हुए और बोले- ’मुझे अंधरे में रखकर उत्तर दिशा में नहीं आने दिया’ और उन्होंने सभी सैनिकों को भेजकर यज्ञ में विघ्न उत्पन्न किया। इस कारण ऋषियों ने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया और वे सब पत्थरवत हो गए।
राजा ने यह सुनते ही प्राण त्याग दिए। उनकी रानियां सती हो गईं। राजकुमार सुजान की पत्नी चन्द्रावती सभी उमरावों की पत्नियों को लेकर ऋषियों के पास गईं और क्षमा-याचना करने लगीं। ऋषियों ने कहा कि हमारा श्राप विफल नहीं हो सकता, पर भगवान भोलेनाथ व मां पार्वती की आराधना करो।
सभी ने सच्चे मन से भगवान की प्रार्थना की और भगवान महेश व मां पार्वती ने अखंड सौभाग्यवती व पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। चन्द्रावती ने सारा वृत्तांत बताया और सबने मिलकर 72 उमरावों और सुजान कुंवर को जीवित करने की प्रार्थना की। भगवान महेश अर्थात शिव ने उन महिलाओं की पूजा से प्रसन्न होकर सबको जीवनदान दिया।
जीवन्त हुए राजकुमार और उमरावों ने भगवान शिव की चरण वन्दना की और आशीर्वाद मांगा। इस पर भगवान शिव ने उनसे वहीं स्थित सूर्यकुण्ड में स्नान करने को कहा। जैसे ही सुजान कुंवर और 72 उमराव उस कुण्ड में स्नान के लिए उतरे उनके हाथों के शस्त्र गल गये। इसके बाद यह स्थान लोहागल के नाम से प्रसिद्ध हो गया। स्नान के बाद अचम्भित सभी लोग जब कुण्ड से बाहर आये तो भगवान शिव ने उन्हें क्षत्रिय कर्म छोड़कर वैश्य धर्म को अपनाते हुए वणिक कर्म करने का आदेश दिया।
महादेव भगवान महेश ने उन्हें वरदान दिया कि आज से तुम 72 लोग हमारे नाम से माहेश्वरी जाति के कहलाओगे। सुजान कुंवर को आदेश दिया कि तुम इन सभी की पीढ़ी दर पीढ़ी वंशावली का संरक्षण रखोगे और जागा (भाट) कहलाओगे।
इधर यह सब देख रहे वे ब्राह्मण भयभीत होते हुए भगवान श्रीमहेश अर्थात महादेव के चरणों में नतमस्तक हो गये। प्रार्थना करते हुए बोले-प्रभु आपने इन लोगों को चैतन्य कर दिया है लेकिन अब ये हमें तपस्या नहीं करने देंगे, मार देंगे। हमारी रक्षा कीजिए। इस पर भगवान शिव ने उन्हें अभय प्रदान करते हुए कहा कि अब ये लोग वैश्य वर्ण हो गये हैं। ये माहेश्वरी कहलाएंगे और तुम्हें अपना गुरू मानेंगे। आप लोग इन्हें अपना शिष्य और यजमान मानकर धर्मोपदेश देकर धार्मिक कार्य पूर्ण कराइये।
इसके बाद वे सभी 73 लोग अपने इन गुरुओं से धर्मोपदेश लेकर अपने खण्डेला राज्य लौट आये। वहां अपनी पूर्व मान्यताओं के अनुसार अपनी कुलदेवियों की पूजा करके कारोबार करने लगे और माहेश्वरी कहलाये।
यही 72 लोगों के नाम से माहेश्वरी जाति की 72 मूल खांप कहलायीं और जिन गोत्रों के ये क्षत्रिय थे वे इनके गोत्र माने गये। साथ ही जो छह ऋषि गुरु बने थे उन्होंने 12-12 लोगों को अपना यजमान बना लिया। 73वें व्यक्ति अर्थात सुजान कुंवर ने भाट कर्म अपनाया और सभी 72 लोगों की वंशावली का लेखा-जोखा रखना शुरू कर दिया। बाद में इनसे सम्पर्क और अनेक आश्चर्यजनक घटनाओं से प्रभावित होकर खण्डेला के अनेक वैश्य इनमें समाहित हो गये। ये खण्डेलवाल माहेश्वरी कहलाये।
कालान्तर में जैसे-जैसे इन 72 परिवारों की वंश वृद्धि हुई तो ये व्यापार करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में फैल गये। सुजान कुंवर के वंशजों ने भी भगवान शिव के आदेशानुसार पिता के कार्य को संभाला।
वर्तमान में माहेश्वरी समाज का भारत देश के विकास में महान योगदान है। माहेश्वरी समाज के लोग देश-विदेश में जहां भी हैं, व्यापार में बड़ा नाम कर रहे हैं। समस्त माहेश्वरी समाज इस दिन यानि महेश नवमी को बड़ी श्रद्धा और भक्ति भाव से भगवान शिव तथा मां पार्वती की पूजा-अर्चना करते हैं।