बरेली। आजकल बच्चों को विभिन्न बीमारियों से बचाव के लिए अनेक प्रकार के टीके लगाये जाते हैं। ये सारे ऐलोपैथी में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आयुर्वेद में भी बच्चों का टीकाकरण करके उनकी इम्युनिटी यानि रोगों से लड़ने की शक्ति को बढ़ाया जाता है। यानि आयुर्वेद में भी बच्चों का टीकाकरण किया जाता है। इसे सुवर्ण प्राशन संस्कार या स्वर्ण प्राशन संस्कार के नाम से जाना जाता है। स्वर्णप्राशन संस्कार क्या है? कब, कैसे और किस आयु के बच्चों का किया जाता है? इस पर बरेली लाइव (www.Bareillylive.in) ने बात की आयुर्वेद चिकित्सक और पंचकर्म विशेषज्ञ डॉ. दिनेश विश्वास से। आइये जानते है ‘स्वर्ण प्राशन संस्कार’ के बारे में-
डॉ. दिनेश विश्वास ने बताया कि आयुर्वेद के बालरोग के ग्रंथ काश्यप संहिता के पुरस्कर्ता महर्षि काशयप ने सुवर्णप्राशन के गुणों का निम्न रूप से निरूपण किया है..
सुवर्णप्राशन हि एतत मेधाग्निबलवर्धनम् । आयुष्यं मंगलमं पुण्यं वृष्यं ग्रहापहम् ॥
मासात् परममेधावी क्याधिभिर्न च धृष्यते । षडभिर्मासैः श्रुतधरः सुवर्णप्राशनाद् भवेत् ॥
सूत्रस्थानम्, काश्यपसंहिता
अर्थात्,
सुवर्णप्राशन मेधा (बुद्धि), अग्नि ( पाचन अग्नि) और बल बढानेवाला है। यह आयुष्यप्रद, कल्याणकारक, पुण्यकारक, वृष्य, वर्ण्य (शरीर के वर्णको तेजस्वी बनाने वाला) और ग्रहपीड़ा को दूर करनेवाला है। सुवर्णप्राशन के नित्य सेवन से बालक एक मास मं मेधायुक्त बनता है और बालक की भिन्न भिन्न रोगो से रक्षा होती है। वह छह मास में श्रुतधर (सुना हुआ सब याद रखनेवाला) बनता है, अर्थात उसकी स्मरणशक्त्ति अतिशय बढ़ती है।
यह सुवर्णप्राशन पुष्य नक्षत्र में ही उत्तम प्रकार की विशेष औषधों के चयन से ही बनता है। पुष्यनक्षत्र में सुवर्ण और औषध पर नक्षत्र का एक विशेष प्रभाव रहता है। प्रत्येक महीने में कम से कम एक बार पुष्य नक्षत्र आता ही है। इस सुवर्णप्राशन से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढने के कारण उसको वायरल और बेक्टेरियल इंफेक्शन से बचाया जा सकता है। यह स्मरण शक्ति बढ़ाने के साथ ही बालक की पाचन शक्ति को भी सदृढ़ करता है। परिणामस्वरूप बालक पुष्ट और बलवान बनता है। यह शरीर के वर्ण अर्थात रंग को भी निखारता है। इसलिये अगर किसी बालक को जन्म से 12 साल की आयु तक सुवर्णप्राशन देते है तो वह उत्तम मेधायुक्त बनता है। कोई भी बिमारी उसे जल्दी छू नहीं सकती।
डॉ. विश्वास बताते हैं कि सोना यानि स्वर्ण या सुवर्ण हमारे शरीर के लिए श्रेष्ठत्तम धातु है। वह ना ही केवल बालकों के लिए सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए उतनी ही असरकारक और रोगप्रतिकारक क्षमता बढ़ानेवाली है। अनेक रोगों में स्वर्ण भस्म दी जाती है। इसीलिए तो हमारे जीवन में हजारों सालों से सुवर्ण यानि स्वर्ण का विशेष महत्व रहा है। हमारे शारीरिक और मानसिक विकार में महत्वपूर्ण प्रभाव होने के कारण ही उसको शुभ मान जाता है, उसका दान श्रेष्ठ माना गया है।
हमारे पूर्वजों की स्पष्ट समझ थी कि, सोना हमारे शरीर में कैसे भी जाना चाहिए। इसलिए सनातन परम्परा में शुद्ध सोने के आभूषण पहनने की परम्परा है। वर्तमान में आभूषण को दिखावा माने जाने लगा है लेकिन प्राचीन समय में इन आभूषणों का विशेष स्वास्थ्यवर्धक महत्व था। कभी नकली गहने पहनने पर बुजुर्गों की डाँट भी पड़ती थी। अनेक ग्रंथों में राजाओं और नगरपतियों या धनवान लोगों द्वारा सोने की थाली में ही भोजन करने का जिक्र मिलता है। इससे स्वर्ण घिसता हुआ हमारे शरीर के भीतर जाये। सोने के गहने पहनना, सोना खरीदना, निर्धनों को सोने का दान करना (जिससे गरीब भी स्वर्ण का उपयोग कर सकें) आदि के पीछे सनातनी आयुर्वेद आचार्यों का अति महत्वपूर्ण दृष्टिकोण था कि, सोना शरीरमें रोगप्रतिकार क्षमता बढ़ाता है। साथ ही हमारी मानसिक और बौद्धिक क्षमता में भी गुणात्मक वृद्धि करता है। यह शरीर, मन एवं बुद्धि का रक्षण करनेवाली अति तेजपूर्ण धातु है। ईसलिये तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था सोने यानि स्वर्ण पर निर्भर है। यही उसकी हमारे जीवन में महता का द्योतक है!!
सुवर्णप्राशन सनातनी भारतीय समाज में आवश्यक 16 संस्कारों में से एक है। हमारे यहाँ जब बालक का जन्म होता है तब उसको सोना या चांदी की शलाका (सलाई) से उसके जीभ पर शहद चटाने की या जीभ पर ॐ लिखने की एक परम्परा रही है। इस परंपरा का मूल स्वरूप है हमारा सुवर्णप्राशन संस्कार। सुवर्ण की मात्रा चटाना यानि सुवर्णप्राशन। हम यह करते ही हैं पर हमें उसकी समझ नही है। यह कैसे आया और क्यूँ आया? इसका हेतु और परिणाम क्या है यह हमें पता नहीं था। सदियों के बाद भी यह कैसे भी स्वरूप में इसका टिका रहना, कुछ कम बड़ी बात नहीं है। वास्तव में परम्परा निभाते समय लोग इन परम्पराओं के पीछे का कारण समझने की कोशिश नहीं करते और न ही उन्हें कोई समझाता है।
यह सुवर्णप्राशन, स्वर्ण के साथ आयुर्वेद के कुछ औषध, गाय का घी और शहद के मिश्रण से बनाया जाता है। यह जन्म के दिन से शुरु करके पूरी बाल्यावस्था या कम से कम छह महीने तक चटाना चाहिए। अगर यह हमसे छूट गया है तो बाल्यावस्था के भीतर यानि 12 साल की आयु तक कभी भी शुरु करके इसका लाभ ले सकते हैं। आजकल बालक के नजदीकी रिश्तेदार बच्चे के जन्म पर उसे सोने के गहने ही भेंट करते है। शायद प्राचीन समय में वेयही सुवर्णप्राशन ही भेंट करते होंगे।
डॉ. दिनेश विश्वास बताते हैं कि इस महीने स्वर्ण प्राशन 12 जनवरी की शाम को किया जाएगा। इसके लिए बच्चे को उसकी मां के हाथ से ही प्राशन कराया जाता है। वह बताते हैं कि जो शुद्ध और कल्याणकारी भावना मां अपने बच्चे के लिए स्वर्णप्राशन कराते समय कर सकती है, कोई डॉक्टर नहीं कर सकता। उन्होंने बताया कि हम इस संस्कार के लिए केवल लागत मूल्य 100 रुपये ही लेते हैं। क्योंकि स्वर्ण भस्म एक महंगा अवयव है, इसीलिए इसकी लागत बढ़ जाती है।
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