जाड़े का मौसम था। एक दिन ऋषि अंगिरा अपने शिष्यों के साथ बैठकर अंगीठी से हाथ सेंक रहे थे। उदयन को सीख देने के उद्देश्य से ऋषि ने पूछा,“इस सुंदर अग्नि का श्रेय कोयलों के कारण ही है न?”
सभी शिष्यों ने हामी भरी। फिर ऋषि ने जलता हुआ एक बड़ा- सा कोयला बाहर निकलवाकर अपने पास रख लिया और कहा, “ऐसे तेजस्वी कोयले का लाभ मैं अधिक निकटता से लूंगा।”
लेकिन थोड़ी ही देर में उस कोयले का तेज कम हो गया और उस पर राख की परत जम गई। ऋषि ने शिष्यों से कहा, “चाहे जितने तेजस्वी बनो परंतु इस कोयले की तरह अकेले प्रभावशाली बनने की भूल न करना। यदि यह अंगीठी में रहता तो लंबे समय तक ऊर्जावान बना रहता और
सबको गरमी देता।” वस्तुतः परिवार -समाज वह इकाई है जिसमें तपकर प्रतिभा कुंदन बनती है। व्यक्तिवादी सोच मानव को अंहकार के दायरे में कैद कर देती है, जिसमें वह अपना बल खोकर निस्तेज हो जाता है। पारस्परिक सहयोग ही प्रगति का सूत्र है।
(अंगिरा ऋषि की वाणी से अथर्ववेद प्रकट हुआ था)
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