बरेली। (विशाल गुप्ता)। मैं किसी के तीन सौ रुपये वापस करने आया और फिर यहीं का होकर रह गया। वो तीन सौ रुपये और पता लिये मैं उस व्यक्ति को आज भी खोज रहा हूं कि मैं उसे वो रुपये दूं और शुक्रिया अदा कर सकूं। एक अंजान लड़के को तीन सौ रुपये देकर उसने मेरी जो मदद की वह मैं जीवन भर नहीं भूल पाउंगा। अपनी जिन्दगी का ये अफसाना बरेली लाइव से एक अनौपचारिक बातचीत में बयां किया डाॅ. वी.के.यादव ने।
हिन्दुस्तान अस्पताल के निदेशक डाॅ. वी.के.यादव की उम्र 28 साल है, लेकिन सपनों में उड़ान के साथ गहराई भी है। इसीलिए फलसफा जिन्दगी में भी दिखता है। कहते हैं कि रोटी जुटाने के लिए पैसा कमाना जरूरी है लेकिन जरूरत के बाद बचा पैसा किसी के काम आ जाये यही सदुपयोग है। कहते हैं बड़ा बनने के लिए बड़ा दिखने के साथ ही सोच का बड़ा होना भी जरूरी है। दूसरों को सपोर्ट करते जाओ, आप बड़े होते जाओगे।
एक सवाल के जवाब में बोले-मैं अपना काम करता हूं, लोग क्या कहते हैं इस पर दिमाग नहीं लगाता। नेपाल में भूकम्प आया तो मैंने 11 डाॅक्टरों की टीम को एकत्र किया, तीन गाड़ियों में दवाएं और अन्य जरूरी सामान रखा और चल दिये नेपाल। महेन्द्र नगर पहुंचने पर फिर भूकम्प आया। हम सबने अपनी आंखों से धरती को हिलते, मकानों जमींदोज़ होते देखा। मंजर दिल दहला देने वाला था, हमारे साथियों के दिल भी दहल गये। उन सबने वापस लौटने का मन बनाया और लौट आये।
आप क्यों नहीं लौटे? पूछा तो बोले-मौत से डरना कैसा? वही तो एकमात्र सत्य है। अगर मरते-मरते भी किसी के काम आ गये तो अमर हो जाओगे। बस, इसी सोच के साथ मैंने आगे सफर करने का तय किया। बस मेरे पास दो गाड़ियां थीं। ड्राइवर मैं अकेला। ऐसे में दो वहीं से किसी तरह दो चालकों को मनाया कि काडमांडू चलो। हंसते हुए बोले- इसके लिए उन्हें धमकाना भी पड़ा, लालच भी देना पड़ा। भगवान कृष्ण ने भी कहा है कि किसी नेक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह सब करना पड़े तो गलत नहीं है।
वहां कई गांव पूरी तरह साफ हो चुके थे। ऐसे में खुले में सोना, अकेला था मैं। बिना किसी सहारे के, करीब साढ़े सात सौ लोगों का जीवन बचाने में ईश्वर ने मुझे माध्यम बनाया। मेरा जीवन धन्य हो गया। प्रतिफल में मुझे मिला आत्म संतोष और बरेली लौटने पर पर ढेर सारा सम्मान। नेपाल के लोगों का असीम सम्मान के साथ अनन्त प्रेम। मैंने वहां से बहुत कुछ सीखा। इसी तरह मैं जिन्दगी के हर पल से, मिलने वाले हर व्यक्ति से, हर एक घटना से कुछ न कुछ सीखना चाहता हूं। मुझे चैलेन्जिंग चीजें पसंद हैं। क्यों कि चुनौतियों के पार जाकर ही विजेता हुआ जा सकता है।
इतने दार्शनिक विचारों के बीच चिकित्सकीय पेशे में कैसे आये? यह पूछने पर बोले-मैं तो एक्टर बनना चाहता था। डान्सिंग और सिंगिंग मेरा जुनून था और कुछ हद तक अभी भी है। लेकिन एक घटना ने मुझे डाॅक्टर बना दिया। मैं एक सामान्य से भी थोड़ा कमजोर आय वर्ग से हूं। मेरे पिता के पास केवल चार बीघा खेती थी। वे किसी तरह हम 5 भाई-बहनों को एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी करके पढ़ा रहे थे और जैसे-तैसे घर खर्च चल रहा था। ऐसे में डाॅक्टरी की महंगी पढ़ाई तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे।
हुआ यूं कि सन् 2004 में मैं इण्टर में पढ़ रहा था। मेरी मां बीमार पड़ीं तो मैं वहीं गोरखपुर के गांव तुलसीरतन (मेरा पैतृक निवास) के पास ही कस्बे में एक डाॅक्टर के पास इलाज के लिए मां को ले गया। उस डाॅक्टर ने मां को एक इंजेक्शन लगाया। मैंने उत्सुकतावश वह इंजेक्शन उठाकर उसका मूल्य पूछ लिया। उस डाॅक्टर ने मुझे झिड़कते हुए कहा-तुम्हारी हैसियत क्या है? तुम्हारी हिम्मत कैसे पड़ी कि मुझसे इसके पैसे पूछ रहे हो, जितना कहा है जमा कर दो। बस, यहीं से मेरे मन में आ गया कि क्या डाॅक्टर होना इतनी बड़ी बात है?
फिर ठान लिया कि डाॅक्टर ही बनना है। पिता जी से बात की तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिये। घर के हालात ही नहीं थे। फिर दो साल तक तैयारी करता रहा। कुछ लोगों के सहयोग से। फिर बाबा ने कहा-अगर तुम्हे दाखिला मिल जाये तो मैं अपनी पेन्शन तुम्हें देता रहूंगा। बस, फिर क्या! सपने को पंख लग गये। दिल्ली पहंुचा। किसी तरह दिल्ली के एबीएल इंस्टीट्यूट में डिप्लोमा इन चाइल्ड हैल्थ के रेजिडेन्सियल कोर्स में दाखिला लिया। फिर वहीं से सीखा कि समाज सेवा कैसे की जानी चाहिए। क्योंकि बिना लोगों की मदद के मेरा डाॅक्टर बन पाना असंभव था। बाद में पापा की आय भी कुछ बढ़ी तो सहयोग मिलने लगा।
इस बीच एक घटना बेहद खास हुई। मैं फाइनल की परीक्षा के बाद घर यानि दिल्ली से गोरखपुर लौट रहा था। पाॅकेट में एक पर्स था, उसी में रास्ते के खर्च के पैसे और टिकट था। ट्रेन के जनरल कोच मैं सफर कर रहा था कि किसी ने मेरी पाॅकेट मार दी।
टीटी आया, टिकट मांगा तो मैंने पाॅकेट दिखायी। लेकिन वह टस से मस न हुआ। बोला-अगले स्टेशन पर उतार दूंगा। मैंने हालात का वास्ता देकर कुछ मिन्नत भी की, लेकिन बात नहीं बनीं। इसी बीच मेरे सामने बैठी एक लड़की ने पूछा टिकट कितने का है। टीटी ने बताया कि डेढ़ सौ का बनेगा। उसने टीटी से कहा कि टिकट बना दे और मेरे हाथ में तीन सौ रुपये रखे। कहा-इन्सान ही इन्सान के काम आता है। मैंने लौटाने के लिए पता और परिचय पूछा तो उसने नाम बताते हुए कहा कि सैटेलाइट पर आ जाना।
बस, फिर घर पहुंचा। वहां से लखनऊ आकर नौकरी की। कुछ पैसे जमा किये, कुछ घर भेजे। इस बीच उन तीन सौ रुपये मुझे हमेशा याद रहे। करीब तीन साल बाद मैं इस लायक हो सका कि वह रुपये लौटा सकूं और अपने मददगार के लिए कुछ उपहार दे सकूं। 25 जून 2013 को मैं बरेली आया। रिक्शे से सैटेलाइट पहुंचा तो मालूम हुआ यह कोई कालोनी नहीं बस अड्डा है। फिर आस पास की कई कालोनियों में खोजा लेकिन उसके द्वारा बताये गये नामों का कोइ व्यक्ति नहीं मिला।
फिर उसे खोजने के लिए बरेली में रुकना जरूरी था। सो, शील अस्पताल में नौकरी कर ली। डाॅ. नवल किशोर गुप्ता का जीवनभर आभारी रहूंगा कि उन्होंने काम करने का मौका दिया। फिर नेपाल का वाकया हुआ। फिर महसूस हुआ कि नौकरी के दौरान समाजसेवा नहीं की जा सकती। ऐसे में अपना अस्पताल शुरू करने का विचार आया। फिर समय ने साथ दिया। कुछ पैसे पास थे, कुछ दोस्तों ने मदद की और कुछ लोन ले लिया। यहीं से पड़ गयी हिन्दुस्तान अस्पताल की नींव।
बच्चों से प्यार है इसलिए बच्चों का डाॅक्टर बना। बेटियों का सम्मान करता हूं इसीलिए हिन्दुस्तान अस्पताल में बेटी के जन्म पर दवा के अलावा कोई खर्च या फीस नहीं लेता। सभी सर्विसेज मुफ्त रहती हैं। बच्चों से प्रेम करता हूं, गरीबी को करीब से देखा और जिया है तो गरीब और जरूरतमंद बच्चों की शिक्षा का खर्च भी वहन करता हूं। अभी करीब 80 बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठा रहा हूं। ईश्वर जैसे-जैसे सम्पन्न करता जाएगा यह अभियान आगे बढ़ता जाएगा।
इतना सब होने के बाद भी शादी नहीं करने के सवाल पर बोले- बस, खोज जारी है।
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