आज जब पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ राजनेता नारायण दत्त तिवारी के निधन की खबर आयी तो अचानक आंखों के आगे वो करीब 15 साल पहले का मंजर तैर गया। नारायण दत्त तिवारी जी से मेरी वह एकमात्र भेंट थी, जो अकस्मात हो गयी थी। लेकिन उस एक ही मुलाकात में में तिवारी जी ने मेरे मस्तिष्क पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी। सही, कोई यूं ही लोकप्रिय नहीं हो जाता, उसमें कुछ तो अलग होता है, एक चुम्बकत्व, एक आकर्षण। किसी का मन जीत लेने के लिए आक्रामक होना आवश्यक नहीं, सहजता और सरलता सबसे बड़ा अस्त्र है दिल में स्थान बनाने के लिए।
मुझे वर्ष और दिनांक ठीक से तो याद नहीं लेकिन जहां तक ध्यान है यह 2004 की बात है। मैं उन दिनों दैनिक जागरण बरेली में उपसम्पादक था। मेरे पास जनरल डेस्क अर्थात अखबार का प्रथम पृष्ठ, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मामलों के समाचारों के सम्पादन की जिम्मेदारी थी। उन दिनों हमारे समाचार सम्पादक श्री रामधनी द्विवेदी थे।
सर्दी के दिन थे। हम लोग अपना प्रथम चार संस्करण यानि लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, शाहजहांपुर और बदायूं संस्करणों का कार्य समाप्त कर चुके थे। केवल महानगर संस्करण शेष था। ये कुछ पल फुर्सत के होते थे। द्विवेदी जी को कहीं बाहर जाना था, सो वह अपना स्कूटर नहीं लाये थे। उन्होंने मुझसे कहा- विशाल, मुझे बरेली जंक्शन तक छोड़ दो। मैंने अपनी बाइक उठायी और द्विवेदी जी के साथ जंक्शन पहुंच गया। उनको छोड़कर पलटा ही था कि प्लेटफार्म 01 पर स्टेशन मास्टर कक्ष की ओर निगाह पड़ी तो वहां एनडी तिवारी बैठे दिखायी दिये। मैंने तुरन्त ही द्विवेदी जी को आवाज दी। बताया और हम दोनों तिवारी जी से मिलने पहुंच गये।
नारायण दत्त तिवारी, वह भी बतौर मुख्यमंत्री और कांग्रेसी राजनीति का चाणक्य, बरेली जंक्शन पर स्टेशन मास्टर के कक्ष में उनकी मेज के सामने एक तरफ पड़ी कुर्सी पर बड़े ही सामान्य तरीके से अपनी ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। उन्हें बाघ एक्सप्रेस की प्रतीक्षा थी और वह कुछ विलम्ब से चल रही थी।
पंडित जी, नमस्कार! के औपचारिक अभिवादन के बाद मैंने अपना और द्विवेदी जी का परिचय दिया। इसके बाद बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। उन दिनों उत्तराखण्ड की राजनीति पर, कांग्रेस की स्थिति पर तमाम चर्चा हुई। करीब 15 मिनट हम लोग बातचीत करते रहे। वह बड़े ही सहज, सरल किन्तु अत्यंत परिपक्व राजनेता की तरह जवाब देते रहे। इसी बीच उनकी ट्रेन के आने की घोषणा हो गयी। इसके बाद हमने वहीं बातचीत को विराम देते हुए विदा ली।
जब उठकर चले तो उन्होंने उन 15 मिनट को बहुत उपयोगी बताया। बोले- मैं तो ट्रेन का इंतजार कर रहा था, आप लोगों ने इस बोझिल समय को गंभीर चर्चा सत्र में बदल दिया। बहुत अच्छा लगा। इस पर मैंने कहा- सर, हम तो यहां द्विवेदी जी को ट्रेन पकड़वाने आये थे। आपसे भेंट का सौभाग्य हो गया। साथ ही एक पत्रकार को एक खबर भी मिल गयी। आभार। इस पर हम दोनों हंसे और विदा ली। अगले दिन के अखबार में यह 15 मिनट एक ‘‘एन.डी.तिवारी से एक एक्सक्लूसिव बातचीत’’ के रूप में अखबार में थी।
ईश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दें और उनके परिजन को इस दुःख को सहने की शक्ति। ॐ शांति शांति शांति
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