Opinion

टोपियां बदलने का मौसम

– नश्तर –

जिस तरह होली से पहले रंगों का और दीपावली से पहले पटाखों का मौसम आता है, उसी तरह चुनाव से ठीक पहले टोपी बदलने का मौसम आता है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे टोपियां बदलने का मौसम जोर पकड़ता जा रहा है। ज्यों-ज्यों विभिन्न चरणों के लिए विधानसभा प्रत्याशी घोषित होते जायेंगे, वैसे-वैसे टोपियां बदलने का यह मौसम और परवान चढ़ता जाएगा। प्रत्याशियों के नामांकन से लेकर नाम वापसी के दिन तक टोपियां बदलने का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा।

यह राजनीति का मैदान है जनाब और इसके रास्ते बड़े टेढ़े-मेढ़े होते हैं। किस पार्टी का कौन सा नेता कब दूसरे दल का दामन थाम ले कुछ कहा नहीं जा सकता है। दल बदलते ही उसकी टोपी, कुर्ता, जैकेट, झण्डे, बैनर और होर्डिंग्स सब का रंग बदल जाता है। यह इक्कीसवीं सदी है कम्प्यूटर एज और इस दौर में रंगों को बदलने के खेल में नेताओं ने गिरगिट को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। अगर रंग बदलने के खेल का कोई विश्व रिकार्ड कायम किया जाय तो हमारे नेताओं के नाम उसमें टॉप पर होंगे।

राजनीतिक गलियारों में कुछ सालों से एक चीज का चलन बहुत तेजी से बढ़ा है और वह नायाब चीज है घुटन। सालों तक दोनों हाथों से सत्ता की मलाई चाटने के बाद चुनाव से ठीक पहले कुछ नेताओं को घुटन महसूस होने लगती है। अब मन उनका है तो घुटन तो उन्हीं को होगी। भला किसी दूसरे का इस पर क्या जोर हो सकता है। अब यह घुटन कैसी है यह तो भुक्तभोगी ही बता सकता है। “जिसके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जानै पीर पराई।“

यह घुटन सत्ताधारी के नेता को ही हो यह जरूरी नहीं है जनाब। यह घुटन तो पूरी तरह से सेक्युलर है। यह सबको समान रूप से देखती है।  यह तो सर्वव्यापी है और घट-घट वासी है। कब किस दल के किस नेता को घुटन होने लगे इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। हां यह जरूर है कि घुटन के कारण अलग-अलग हो सकते हैं।

सबसे पेचीदा मसला यह है कि इतनी वैज्ञानिक प्रगति के बाद भी आज तक घुटन को मापने के किसी यंत्र का आविष्कार नहीं हो सका है। काश ऐसा कोई यन्त्र बन गया होता तो सभी दलों के आला पदाधिकारी अपने-अपने दल के नेताओं की खासतौर विधायकों की दिन में कम से कम एक बार रेंडम चेकिंग कर लिया करते। इस चेकिंग से आला पदाधिकारियों को पता चलता रहता कि उनके दल के नेताओं की घुटन का स्तर क्या है और उसे किस नुस्खे से दूर किया जा सकता है।

जब तक राजनीति है तब तक टोपियां बदलने, रंग बदलने, आस्था बदलने और घुटन होने का दौर भी चलता रहेगा। अभी तो मौसम शुरू हुआ है, आगे यह क्या-क्या गुल खिलाता है देखते रहिए और चर्चाओं का बाजार गर्म होता रहने दीजिए।

सुरेश बाबू मिश्रा

(लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं)

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