Opinion

बालश्रम यानी आर्थिक प्रगति के खोखलेपन की स्याह तस्वीर

– मजदूर दिवस पर विशेष –

भारत दुनिया के पांच परमाणु हथियार सम्पन्न देशों में शामिल है। मंगल ग्रह पर पहली बार में ही सफलतापूर्वक यान भेजकर वह ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बनने का इतिहास रच चुका है। हमारे देश की अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। मगर इन सबसे उलट देश की एक स्याह तस्वीर भी है जो हमें शर्मसार करती है और वह तस्वीर है बालश्रम की। इस इक्कीसवीं सदी में देश में बड़ी संख्या में नौनिहाल अपनी आजीविका की खातिर मजदूरी करने को विवश हैं। वे हमारी आर्थिक प्रगति के खोखलेपन को उजागर करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) द्वारा 2016 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में अभी भी 152 मिलियन बालश्रमिक हैं। इनमें से 73 मिलियन बालश्रमिकों को बहुत ही कष्टकारी माहौल में जोखिम पूर्ण कार्य करने पड़ते है जिसके एवज में उन्हें बहुत कम मजदूरी मिलती है। इस प्रकार उनका दोहरा शोषण होता है।

एक आंकलन के अनुसार भारत में लगभग 33 मिलियन बालश्रमिक हैं। आज देश आजाद है। अब देश का हर बच्चा स्वतंत्र पैदा होता है। हमारा संविधान सभी को समानता का अधिकार देता है परंतु इस सबके बावजूद फैक्ट्रियों, होटलों, रेस्टोरेंट पीतल के कारखानों, बागानों में काम करते, बोझा ढोते तथा जूते साफ करते बच्चे क्या बन पाते हैं? अशिक्षित, असमर्थ और साधन विहीन नागरिक जो दूसरों की मर्जी के मुताबिक काम करने को मजबूर हैं। अपने पेट की आग बुझाने की खातिर वे ताउम्र काम की गाड़ी में जुटे रहते हैं।

बालश्रम को रोकने के लिए यूनीसेफ द्वारा सन् 2002 में बालश्रम निरोधक अधिनियम बनाया गया। इस अधिनियम के द्वारा बा श्रम पर कानूनन रोक लगा दी गई और बालश्रम कराने को दंडनीय अपराध घोषित किया गया। दुर्भाग्यवश बालश्रम अभी भी जारी है। बालश्रम कराना गैर कानूनी है। यह केवल अपराध ही नहीं बल्कि पाप है। हम बालकों से उनका बचपन छीन रहे हैं। इस उम्र में जिनके हाथों में किताबें होनी चाहिए हम उनके हाथों में काम के औजार थमा देते हैं। दुनिया में बालश्रमिकों के मामले में भारत का दूसरा स्थान है जो शाइनिंग इंडिया और डिजिटल इंडिया के नारों पर सवालिया निशान लगाने के साथ ही सरकारों के दोहरे चरित्र को भी उजागर करता है।

बीड़ी कारखानों, पीतल एवं कलई के बर्तन उद्योग, ताला उद्योग, चाय बागानों, होटलों, रेस्टोरेन्टों,  ऑटो एवं कार वर्कशॉप तथा सूती वस्त्र के कारखानों में बालश्रमिकों को बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। पीतल और कलई उद्योगों में काम करने वाले 70 प्रतिशत बाल श्रमिकों को क्षय रोग हो जाता है जो ताउम्र उनका पीछा नहीं छोड़ता। यह सब जानते हुए भी पेट की आग बुझाने की खातिर वे यह जोखिमपूर्ण कार्य करने को मजबूर हैं।

भारत में उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और असम में सबसे अधिक बालश्रमिक हैं। बालश्रमिकों के मामले में उत्तर प्रदेश पहले तो बिहार दूसरे स्थान पर है। उत्तर प्रदेश में 22 लाख और बिहार में 11 लाख बालश्रमिक हैं। यहां के बालश्रमिक रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों में भी जाने को मजबूर हैं। बालश्रम रोकने का कोई भी अधिनियम या कानून इनके लिए बेमानी है।

बालश्रम मुक्ति की राह में सबसे बडी बाधा निर्धनता और निरक्षरता है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसी दास कहते हैं, “नहि दरिद्र सम पाप गोसाईं, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।” इसका अर्थ है कि गरीबी सारे पापों की जड़ है। गोस्वामी तुलसी दास जी की यह चैपाई बालश्रम के मामले में बिलकुल सटीक प्रतीत होती है। गरीबी बालश्रम की असली जड़ है और जब तक हम जड़ को समाप्त नहीं करेंगे तब तक कोई भी अधिनियम या कानून बालश्रम को रोकने में सफल नहीं हो पाएगा।

हम भले ही दुनिया भर में अपने तकनीकी ज्ञान प्रौद्योगिकी, वैज्ञानिक सोच, प्रगति और विकास का ढिंढोरा पीट रहे हो मगर सच्चाई यह है कि 73 साल की आजादी के बाद भी देश में लगभग 30 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन जीने को मजबूर हैं। उन्हें दो जून पेट भर खाना भी मयस्सर नहीं है। वक्त और हालात के मारे ये बेबस और लाचार लोग अपने नौनिहालों को कच्ची उम्र में ही काम की गाड़ी में जोत देते हैं और फिर उनका यह सफर ताउम्र जारी रहता है।

निर्धनता और निरक्षरता में सकारात्मक संबंध है जो गरीब है वह अनपढ़ भी है। दुनिया के सबसे अधिक निरक्षरों की संख्या हमारे देश में है। ये गरीब और अंगूठा टेक लोग सरकार द्वारा उनके और उनके बच्चों के लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं के बारे में पूरी तरह अनजान हैं। इनकी अज्ञानता का लाभ उठाकर गांवों के छुटभैइये नेता सरकारी सिस्टम से सांठ-गांठ करके इनके नाम पर मिलने वाली सरकारी मदद का आपस में बंदरबांट कर लेते हैं। और सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद गरीब बेचारे गरीबी से नहीं उबर पाते हैं।

बालश्रमिकों को बालश्रम से मुक्त कराने तथा 6-14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा सन् 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया गया। स्कूलों में ही बच्चों को भोजन मिले इसके लिए मिड डे मील योजना लागू की गई। इसके कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आये और इससे बालश्रम पर लगाम लगाने में कुछ हद तक सफलता भी मिली है। मगर अभी भी निर्धनता ने बालश्रमिकों के पैरों में बेड़ियां डाल रखी हैं। जब तक देश से गरीबी खत्म नहीं होगी तब तक बालश्रमिकों को बालश्रम से मुक्ति नहीं मिलेगी।

इक्कीसवीं सदी में बालश्रम हमारे सभ्य समाज के लिए कलंक है। हम बच्चों से उनका बचपन छीन रहे हैं। यही बच्चे हमारे देश के भविष्य की नींव है। अगर हम देश के बच्चों को बालश्रम से आजाद नहीं करा पाते तो भारत विश्व की महाशक्ति कैसे बन पाएगा। इसलिए नौनिहालों को बालश्रम से मुक्त कराने के लिए हमें उनके मां-बाप की गरीबी को दूर करना होगा। उन्हें दो जून भरपेट भोजन मिल सके सरकारों को इसके लिए कारगर उपाय करने होंगे। गरीबी हटाए बिना बालश्रम निषेध की खोखली बातें करना बेमानी हैं।

सुरेश बाबू मिश्रा

(साहित्यकार एवं पूर्व प्रधानाचार्य)

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