भारत में यों तो बहुत बड़े-बड़े विद्वान और शिक्षाशास्त्री हुए हैं लेकिन श्रीकांत जिचकर जैसा योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्ति मिलना बहुत मुश्किल है। उनका नाम भारत के ‘सबसे योग्य व्यक्ति’ के रूप में लिम्का और गिनीज़ बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज है। आज भी वह सबसे शिक्षित भारतीय कहलाते हैं। उनके पास 2 या 4 नहीं बल्कि 20 बड़ी डिग्रियां थीं। 14 सितंबर 1954 को नागपुर में जन्मे डॉ. श्रीकांत जिचकर ने कृषि के साथ ही राजनीति, थिएटर, पत्रकारिता आदि में भी रिसर्च की।
श्रीकांत जिचकर ने सबसे पहले एमबीबीएस की डिग्री ली। इसके बाद उन्होंने एमएस की पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दिया और कानून की पढ़ाई की तरफ मुड़ गए। एलएलबी के बाद एलएलएम (अंतरराष्ट्रीय कानून) की पढ़ाई की। इसके बाद एमबीए किया। वर्ष 1973 से 1990 के बीच श्रीकांत ने 42 विश्वविद्यालयों की परीक्षाएं दीं जिनमें से 20 में वे उत्तीर्ण हुए। यही नहीं, ज्यादातर में वे प्रथम श्रेणी में पास हुए और उन्हें कई गोल्ड मेडल भी मिले। उन्होंने आईपीएस की परीक्षा भी पास की लेकिन जल्द ही त्यागपत्र दे दिया। आईएएस परीक्षा भी पास की पर चार माह बाद ही त्यागपत्र दे दिया। कितनी अजूबी बात है देश की सर्वोच्च परीक्षाओँ पास करके फिर उन्हें छोड़ देना!
यह अद्भुत, अकल्पनीय, अविश्वसनीय महामानव डॉक्टर भी रहा, बैरिस्टर भी रहा, आईएएस और आईपीएस अधिकारी रहा, विधायक, मंत्री, सांसद भी रहा,चित्रकार, फोटोग्राफर और मोटिवेशनल स्पीकर भी रहा, पत्रकार भी रहा,कुलपति भी रहा, संस्कृत और गणित का विद्वान था। इतिहासकार, समाजशास्री और अर्थशास्त्री भी रहा। काव्य रचना भी की। ज्ञान का इतना विशाल भंडार किसी एक व्यक्ति में होना अकल्पनीय-सा लगता है। लगता है हम किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि किसी संस्थान की बात कर रहे हैं। भारतवर्ष में ऐसा व्यक्ति हुआ जिसने मात्र 49 वर्ष की अल्पायु में यह करिश्मा कर दिखाया। अपने देश में कुछ ही प्रतिभाएं हुईं हैं जिन्होंने बहुत कम समय इस धरती पर रहकर वह कर दिखाया जो लोग जीवन भर कड़ी मेहनत करके भी नहीं कर पाते हैं। ऐसी ही प्रतिभा थे श्रीकांत जिचकर।
श्रीकांत 1978 बैच के आईपीएस और 1980 बैच के आईएएस अधिकारी थे। 1981 में वह महाराष्ट्र में विधायक बने। वर्ष 1992 से लेकर 1998 तक राज्यसभा सदस्य रहे। 1999 में उनके कैंसर का डायग्नोज अंतिम (लास्ट) स्टेज में हुआ। डॉक्टर ने कहा कि उनके पास जीवन का मात्र एक महीना शेष बचा है। वह अस्पताल में मृत्यु-शैया पर पड़े हुए थे लेकिन आध्यात्मिक विचारों के धनी होने के चलते जीने की आस नहीं छोड़ी। बताते हैं कि उसी दौरान कोई संन्यासी अस्पताल में उनसे मिलने आया और ढांढस बंधाते हुए उनको संस्कृत भाषा और शास्त्रों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करते हुए कहा. “तुम अभी नहीं मर सकते…अभी तुम्हें बहुत काम करने हैं..!” और चमत्कारिक रूप से श्रीकांत जिचकर पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए।
श्रीकांत ने स्वस्थ होते ही सर्वप्रथम राजनीति से संन्यास लेकर संस्कृत भाषा में डी.लिट. की उपाधि प्राप्त की। उनका कहना था, “संस्कृत भाषा के अध्ययन के बाद मेरा जीवन ही परिवर्तित हो गया है। मेरी ज्ञान पिपासा अब पूर्ण हो गई है।” उन्होंने पुणे में संदीपनी स्कूल की स्थापना की। नागपुर में कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसके प्रथम कुलपति भी बने। उनका पुस्तकालय किसी व्यक्ति का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था जिसमें 52000 के करीब पुस्तकें थीं।
उनको दो सपना आज भी अधूरे हैं- भारत के प्रत्येक घर में कम से कम एक व्यक्ति संस्कृत भाषा का विद्वान हो और कोई भी परिवार मधुमेह जैसी जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों का शिकार न हो।
ऐसी असाधारण प्रतिभा के लोग आयु के मामले में प्रायः निर्धन ही देखे गए हैं। अति मेधावी, अति प्रतिभाशाली व्यक्तियों का जीवन ज्यादा लंबा नहीं होता है, यह वैश्विक सच्चाई है। 2 जून 2004 को नागपुर से 60 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र में ही एक स्थान पर हुए भीषण सड़क हादसे में श्रीकांत जिचकर का निधन हो गया।
विभिन्न व्यक्तियों की जयंती को उत्सव के रूप में मनाया जाता है लेकिन विडम्बना है कि वास्तव में देश के लिए काम करने वाले गुणी व्यक्ति को कोई जानता तक नहीं है जबकि ऐसे लोगों के जीवन से कितने ही युवाओं को प्रेरणा मिल सकती है। ऐसे महामानव को शत-शत नमन।
(वरिष्ठ पत्रकार)
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