रेली के कई साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को अपने योगदान से समृद्ध किया है। इनमें एक नाम चन्द्र नारायण सक्सेना एडवोकेट उर्फ सोना उर्फ “भ्राता जी” का भी है जिन्होंने गद्य और पद्य दोनों में लेखन कार्य किया। उन्होंने दैनिक विश्व मानव बरेली में वर्षों तक संपादकीय लिखा। आर्य मित्र का संपादन भी किया। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, संस्कृत, फारसी के ज्ञाता होने के साथ ही उनके लेख हिंदी और अंग्रेजी के अखबारों के समय-समय पर प्रकाशित होते रहे। पंडित राधेश्याम कथावाचक को काव्य गुरु मानने वाले चन्द्र नारायण सक्सेना ने कई नाटकों का लेखन करने के साथ ही नाटकों में अभिनय भी किया। वह वर्षों आर्य समाज मंदिर, बिहारीपुर, बरेली एवं आर्य समाज अनाथालय, बरेली के प्रधान भी रहे। वर्ष 1937 में वह बरेली शहर कांग्रेस के मंत्री बने पर विजय लक्ष्मी पंडित से मतभेद के कारण 1945 में कांग्रेस छोड़कर हिन्दू महासभा में शामिल होकर उपाध्यक्ष बने। 1947 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद वह श्यामा प्रसाद मुखर्जी की नीतियों के पक्षधर बन गए।

1902 में कायस्थ परिवार में प्रेमनारायण सक्सेना के घर जन्मे चन्द्र नारायण सक्सेना की बाएं हाथ की मुट्ठी जन्मकाल से ही बंद थी जो 11 अक्टूबर 1988 को मृत्यु तक बंद ही रही। प्रारंभिक शिक्षा ग्राम अहरोली में हुई। हाईस्कूल राजकीय इंटर कालेज, बरेली तथा इंटर की पढ़ाई बरेली कॉलज से करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. हिंदी तथा बरेली कॉज से कानून की पढ़ाई पूरी की।

बरेली के बालजती पुराना शहर निवासी चन्द्र नारायण सक्सेना कुछ समय आजाद स्कूल में भी पढ़े और बाद में आजाद इंटर कॉलेज में अध्यापक भी रहे। बरेली कॉलेज पुरातन छात्र संघ के अध्यक्ष भी रहे। उनके दो पुत्र यतीन्द्र नारायण सक्सेना और जितेन्द्र नारायण सक्सेना तथा दो बेटियां हैं।

चन्द्र नारायण सक्सेना की नाटकों के लेखन और नाटकों के पात्र बनने में बेहद रुचि थी। इसलिए डीएवी इंटर कालेज में उन्होंने नाट्यशाला की स्थापना पर वहां द्रौपदी वस्त्र हरण, सत्यवादी हरीश चन्द्र, मशरती हूर समेत कई नाटकों पर मंचन कराया जिनमें मशरती हूर एवं देवर्षि नारद खासे चर्चित रहे। जे.सी.पालीवाल एवं वी.एस. सक्सेना ‘मुनमुन’ बताते हैं कि उनके लिखे कई नाटकों पर लेखक के रूप में उनके गुरु का ही नाम जाता रहा ऐसा कहा जाता है। पूर्व शिक्षक विधायक रमेश चन्द्र शर्मा विकट बताते है कि चन्द्र नारायण सक्सेना जगह-जगह आर्य समाज का प्रवचन करने भी जाते थे। चन्द्र नारायण सक्सेना एक बार बंबई (मुंबई) प्रवन करने गए तो वह भी उनके साथ थे जहां उन्हें नकद धनराशि भी प्राप्त हुई थी। चन्द्र नारायण जी ने एक जगह उनका भी प्रवचन करा दिया था जिससे उनको भी आर्थिक लाभ हुआ। विकट जी बताते हैं कि राधेश्याम कथावाचक की बदायूं रोड, बरेली स्थित बगिया में चन्द्र नारायण जी के साथ वह कई बार गए जहां चाय-पकौड़ी के साथ अक्सर नाटकों पर चर्चा होती थी।

मुझे याद है जब 1974 में मैं दैनिक विश्वमानव में आया तो चन्द्र नारायण वहां आते थे। सफेद-कुर्ता धोती धारण करने वाले चन्द्र नारायण का सम-सामयिक विषयों पर सम्पादकीय वाकई में तब खूब पढ़ा जाता था। उनकी लिखावट भी बहुत ही सुन्दर थी जिसके लिए वह निब वाले होल्डर का प्रयोग करते थे।

धार्मिक नाटकों की लोकप्रियता ने पारसी रंगलोक में पंडित राधेश्याम कथावाचक और पंडित नारायण प्रसाद बेताब की सुधारवादी दृष्टिकोण युक्त उपदेश प्रदान करने वाली नाट्य परम्परा की स्थापना की। हास्य-व्यंग्य इसमें भी आगाह हश्र कश्मीरी जैसे ही थे। चंद्र नारायण सक्सेना इसी नाट्य परम्परा के कुशल नाट्य लेखक और अभिनेता थे। उनका बचपन का नाम था सोना, जो कि संभवतः संयोगवश पारसी रंगमंच के गुजराती नाटककार एदलजी खोरी द्वारा रचित कामावती नामक हिन्दू कथा पर आधारित नाटक सोना व मूलनी खुशेद के प्रारंभिक शब्द सोना से मेल खाता था। उनके सुपुत्र जे.एन. सक्सेना ने ‘जब जब याद आया’ की पांडुलिपि में लिखा है कि यह बात सन् 1941 से 1942 की होगी। चन्द्र नारायण की ससुराल पैतृक घर के पास ही थी। वह कभी-कभी सुबह घर से जाते समय मुझे अपनी नानी के पास भेजते कि जाकर मुझिया से कहो कि सोना ने कुछ रुपये मंगाए हैं। मैं भागता हुआ जाता और मुझिया से कहता-पापा ने कुछ रुपये मंगवाए हैं। यह सुनकर मुझिया मुस्करातीं और तकिये के नीचे से सौ रुपये का एक नोट निकालकर दे दिया करतीं। इतना बड़ा नोट मैंने पहली बार देखा। इसके आगे उन्होंने यह भी लिखा है, “मैं भागता हुआ पिताजी के पास पहुंचा और सौ रुपये का नोट पिताजी को दिया और फिर नानी का संदेश पिताजी को दिया कि मुझिया ने आपके लिए कहा है कि सोना से कहियो नैक अपनो मुखड़ा तो दिखाए जाए। तो पिताजी ने कहा मुझिया से कहिओ कि सौ रुपये में तो मुखड़ा नहीं दिखाएंगे, पांच सौ रुपये दें तो मुखड़ा दिखाएंगे। इस पर हमारी दादी, मेरी मां और सब मुस्कराते रहे।”

चन्द्र नारायण सक्सेना कुशल नाट्य-अभिनेता भी थे। उनके वाक्पटुतापूर्ण संवाद बड़े ही मनोरंजक तथा स्वाभाविक होते थे। हास-परिहासपूर्ण पात्रों के चरित्र वह बड़ी कुशलता से अभिनीत करते थे। दर्शक उनकी उत्तर-प्रतिउत्तर शैली से बहुत प्रभावित होते थे। जे.एन. सक्सेना ने इस संदर्भ में लिखा है कि मेरे पिताजी  की बाएं हाथ की मुट्ठी बंद थी जन्म से, जो खुलती नहीं थी। यह चंद्रग्रहण का प्रभाव था, हाथ की अंगुली पूरी न होकर छोटी थी। एक बार स्टेज पर दूसरे पात्र ने उनसे यह पूछ लिया “आपके हाथ की अंगुलीली कैसी है?’ सब लोग जो नाटक देख रहे थे हंसने लगे लेकिन पिताजी ने फौरन जवाब दिया- जनाब हम जागीरदार परिवार से हैं और हमें बचपन से बटेर पालने का शौक था। दोनों हाथों में मुट्ठी बांधे रहते थे और उनसे बातें करते थे और खेलते रहते थे। बस एक बार रात को सोते समय बटेर मुट्ठी में बांधकर सो गए। सुबह जब आंख खुली तो देखा बटेर ने हमारी अंगुली कुतर ली। तबसे हमारा बायां हाथ ऐसा हो गया।”

यह सुनकर वह किरदार, जिसने उनसे यह पूछा था, भौंचक्का रह गया और आगे बात करने की हिम्मत ही समाप्त हो गई। नाटक देख रहे लोगों ने खूब तालियां बजाईं और हंस पड़े। चन्द्र नारायण सक्सेना का यह उत्तर इतना अच्छा माना गया कि स्वयं कमिश्नर ने उनको विशेष पुरस्कार दिया।

डॉ एस.पी. खत्री ने लिखा है, “आधुनिक काल वाक्चातुर्य का काल है। वाक्चातुर्य एक श्रेष्ठ कला है जिसमें विद्वता और शब्दज्ञान का विशेष हाथ रहा है। व्यंग्य, श्लेष औक उपहास इसके प्रधान अंग हैं। व्यंग्य के तीखे बाण छोड़कर, श्लेष का शाब्दिक प्रयोग कर तथा उपहास का वातावरण उपस्थित कर कथोपकथन प्रधान प्रहसन लिखे गए हैं।” चंद्र नारायण सक्सेना का प्रसिद्ध नाटक है द्रौपदी-वस्त्रहरण। इसमें विदुर और शकुनी के वार्तालाप हास-परिहास की दृष्टि से अवलोकनीय है। शकुनि धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी के भाई हैं और विदुर धृतराष्ट्र के भाई हैं। अतः दोनों में जीजा-साले का रिश्ता है। श्लेष के शाब्दिक प्रयोग की दृष्टि से विदुर के निम्नलिखित कथोपकथन देखिए-

जब हृदय व्यथित हो, व्याकुल हो, अपनों से सुखद दिलासा ले।

मिष्ठान कहीं पर बंटता हो तो आगे बढ़कर हिस्सा ले।

मैंने यह कहा शकुनि जी से मीठा शुद्व बता साले।

यह समझे मैं यह कहता हूं कि मेरी बात बता साले।

एक अन्य कथोपकथन में भी विदुर का यह उपहास बड़ा मजेदार लगता है- जैसे सावन के अंधे को सर्वत्र हरियाला दिखाई देती है, वैसे ही तुम्हें भी नीति के वाक्यों में साला दिखाई देता है। शकुनि जी, बुरा क्यों मानते हैं। जैसे तरकारियों में गरम मसाला वैसे ही संबंधियों में साला।

शकुनि अराजक, अशक्त मूल्य विहीन स्वार्थ साधना में तत्पर, प्रशासनिक व्यवस्था में सांस्कृतिक विघटन से जुड़े सामर्थ्य विहीन शासक के लाभ का प्रतीक है। धतृराष्ट्र विवेकहीन शासक की न्याय विहीन जीवन गृहस्थी का उदाहरण है। वह भी संभवतः हास्य की स्थिति उत्पन्न करने के लिए ही “यही तो मैं भी कहता हूं” कि शासित आवृत्ति या तकिया कलाम यथावतर बोलते रहते हैं। किसी व्यक्ति, संस्था अथवा समाज की दुर्बलता पर आक्षेप कर उसका विरोध उपहास में किया जाता है। इस प्रकार व्यंग्य अथवा उपहास साहित्यकार के हाथ का वह चाबुक है, जिसकी मार से व्याकुल होकर व्यक्ति, संस्था अथवा समाज सही मार्ग पर चलने को बाध्य किया जाता है। यह सुधारक का कोरा उपदेश नहीं है, जिसे सुनकर भुला दिया जाता है, यह वह तीखा बाण है, जो मर्म में सीधा घुसता है और इसका शिकार असहाय तिलमिलाता रह जाता है। प्रायः नाटकों में चार प्रकार के विदूषक दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हें मूर्ख, विनोदी, धूर्त और व्यंग्यवक्ता का नाम दिया गया है। द्रौपदी वस्त्रहरण नाटक में विदुर यदि व्यंग्यवक्ता हैं, तो नंदा नाई धूर्त है। वह कौरव युवराज दुर्योधन का मुंह लगा सेवक है। उसके अनुसार सारी कारामात उस्तरे की है सरकार। बुड्ढे को जवान-जवान को बुड्ढा बना सकता है। सोते को जगा सकता हूं, जागते को सुला सकता हूं। सारी करामात उस्तरा की है सरकार। वह दुर्योधन के संकेत पर मामा शकुनि की मूंछें पहले तो छोटी-बड़ी कर देता है। शकुनि जब चपत मारकर उसे डांटता है, तब वह उत्तर देता है कि देखिये राजकुमार, अगर आप चपटें बजाएंगे तो मैं भी उस्तरा लगा दूंगा। अभी तो लंगूर बने हो फिर वनमानुष बना दूंगा। धीरे-धीरे वह उसकी पूरी मूछें साफ कर देता है और एक टिकिया बालसफा साबुन की भी देता है। इसे पानी में घोलकर सिर पर लगाने के कारण शकुनि मामा के सिर के सभी बाल साफ हो जाते हैं। दुर्योधन उसे डांटते हुए कहता है-

इनके सिर का बाल तो हर एक पखेरू हो गया।

घुट गई है चांद इनका सिर कसेरू हो गया।।

प्रशासनिक शोषण नीति का युगीन यथार्थ और मन के स्वार्थ प्राप्त करने की कुपात्रोचित महत्वाकांक्षा को स्पष्ट करने वाली उपर्युक्त पंक्तियां नाटककार की निर्भीकता पूर्ण सुधारवादी नीति को प्रदर्शित करती हैं। हास्य-व्यंग्य का यह सशक्त प्रयोग तत्कालीन शासक की कुशासनयुक्त अविवेशीलता को तब और व्यापकता के साथ उजागर करता है, जब नक्षत्र को एक दिन के राजा बना दिया जाता है। वह सर्वप्रथम कर्ता तथा कर्मफल के सिद्धान्त के अनुरूप पुरुषार्थ का विरोध करते हुए सत्यसागर नामक प्रधानमंत्री जी को आदेश देता है- मैं चाहता हूं कि हमारे देश से निर्धतनता मिट जाए। राजा और रंक का भेद मिट जाए, संपत्ति का ऐसा आवंटन हो कि बराबर धन मिल जाए। उसकी मान्यता है कि इतने बड़े राजा हरिश्चन्द्र के राज्य में एक मंत्री है इसीलिए देश में निर्धनता फैली हुई है। इसे दूर करने के लिए कम से कम पांच मंत्री, पांच राज्यमंत्री तथा पांच उपमंत्री होने आवश्यक हैं। इनका काम होगा रात्रि में नृत्यशालाओं में गाना सुनें, नाच देखें, सभाओं में भाषण दें, संस्थाओं का उद्घाटन करें, अपने भाई-भतीजों को शासन की सेवा में पद दिलाएं। सुशासन को कुशासन में परिवर्तित करने की भोग-विलासपूर्ण स्थिति पर किया गया यह व्यंग्य नाटककार की निर्भीकता तथा अत्यंत स्पष्ट टिप्पणी करते हुए कहती है कि राजाजी ने जबसे स्वप्न में राजपाट मुनि विश्वामित्र को दे दिया है, तबसे पतिदेव का मस्तिष्क सातवें आसमान पर पहुंच गया है। तरह-तरह के बहाने बनाकर धन उगाते हैं। मुनिवर को राजा और अपने को उनका सचिव बताते हैं। औरों की क्या कहूं, मुझे भी खातिर में नहीं लाते हैं। अमावस्या कहती हूं तो वे पूर्णमासी बताते हैं। मैं धु्रपद गाऊं तो वे मल्हार सुनाते हैं। बात-बात में रोब जमाते हैं राजमद का ऐसा व्यंग्यात्मक रूप निरंकुश राजतंत्र की धूर्तता का प्रमाण है। वैसे नक्षत्र है पूर्णतया बौड़म या ‘बोमोलोकस’ यूनान में हास्य भाषण के सिद्धान्त के अनुसार जिस मनुष्य का विनोद औचित्य अनुपात की दृष्टि से अनावश्यक, शीलहीन, फूहड़, अश्लील और ईष्यापूर्ण होता था, उसे या उस जेसे लोगों को बोमोलोकस कहते थे, जो कला ही नहीं या जिनका चरित्र सामाजिक दृष्टि से दोषपूर्ण उत्पन्न करने वालें भांडों या विदूषकों को भी बोमोलोकस कहते थे। जिसे अंग्रेजी में बेले डाउन कहते हैं। नक्षत्र विश्वामित्र जी द्वारा दिये गए दाढ़ी के बाल रूप मुकुट को कमरे में और जटा के बाल रूप तलवार को सिर पर धारण करके उल्टा पुल्टा करने में कुशल विदूषकों के समान हास्य उत्पन्न करने में भी प्रवीण है। उसकी पत्नी विचित्री ने ठीक ही कहा है- कमर में छत्र सिर पै खंग यह बानक बहुत भाया।

बने राजा मगर राजा तुम्हें बनना नहीं आया।।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चंद्रनारायण सक्सेना के नाटकों में हास्यरस का व्यवस्थित एवं सौष्ठवपूर्ण प्रयोग उनके व्यंग्यात्मक कथोपकथनों तथा पात्रों के चरित्र के माध्यम से प्रशंसापूर्णता की स्थिति में स्थापित है। इसलिए वंसमोर नंदा और वंसमोर नक्षत्र-

मैं हूं ऊंची पदवी वाला बना हूं मैं दीवान

बड़ी आन-बान-शन क्या ही न्यारी है।

निर्भय सक्सेना

(लेखक उपजा के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं)

2 thoughts on “भूले-बिसरे लोग : अभिनय के साथ ही नाट्य लेखन में भी पारंगत थे चन्द्र नारायण सक्सेना”
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