Opinion

कन्या भ्रूण हत्या के बहाने सत्य से साक्षात्कार

“बेईमान” मौसम एलीट वर्ग को पिकनिक पर जाने के लिए तैयार करता है तो किसान को कर्ज लेने के लिए मजबूर करता है। पहले मौसम प्राकृतिक रूप से बेईमान हुआ करता था अतः उसके सिद्धांत हुआ करते थेकिंतु आज मौसम की बेईमानी “कृत्रिम” है इसीलिए प्राकृतिक आपदा बन जाती है।

एस के शर्मा

भ्रूण में कन्या की हत्या का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं कि बेटियां अपराधी होती हैं या फिर चारित्रिक रूप से पतित। कन्या भ्रूण हत्या के पीछे का मनोविज्ञान विशुद्ध रूप से एक सामाजिक मनोविकार और “आर्थिक मनोरंजन” होता है।

कुछ मां बाप आर्थिक रूप से इतने कमजोर होते हैं कि वे दहेज के कारण बेटी को अपनाने से बचते हैं तो कुछ मां-बाप सामाजिक उपहास से बचने के लिए बेटियों को अपना नहीं मानना चाहते। धर्मशास्त्र को अर्थशास्त्र मार देता है, अध्यात्म शास्त्र को अपराध शास्त्र जबकि बेटियों की सफलता और संवेदनशीलता परिवार के लिए उपहास नहीं बल्कि उपहार ही होती है।

ठीक ऐसा ही है सत्य के साथ। सत्य अपने आप में एक सत्ता है, सृष्टि की निरंतरता है। हर रोज हजारों सत्य सिर्फ इसलिए ही आत्मा में मार दिए जाते हैं क्योंकि हमें अपनी देह से प्यार है। हम सत्य को बोलकर अपने शरीर को जोखिम में नहीं डालना चाहते, हम आत्मा को ही जख्मी करते रहते हैं।

किन्तु वह सत्य है, जन्म लेना उसका अधिकार है, वह अधिकार जो विधाता ने दिया है! एक बीज की तरह, जो तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में शांत और सुसुप्त रहकर ईश्वर की आराधना करता रहता है।

विधाता समय के साथ नयी परिस्थिति का सृजन करता है। प्रतिकूल मौसम से संघर्ष करते-करते लगभग मृतप्रायः हो चुका वह बीज अंकुरित होता है और प्रकृति की पुस्तक में अपने अस्तित्व और समर्पण का अध्याय लिख नए बीज पृथ्वी को अर्पित कर अमरत्व का काव्य लिख डालता है।

आत्मा सृष्टि का पवित्रतम ऊर्जा पुंज है, तो सत्य आत्मा की अंतिम पूंजी। आत्मा के परमात्मा में विलीन होते ही भौतिक अस्तित्व शून्य हो जाता है, ठीक उसी प्रकार सत्य के सुसुप्त होते ही समाज शब्द निरर्थक हो जाता है। आज हजारों सत्य अर्थशास्त्र के नीचे दबा दिए जाते हैं, अर्थशास्त्र ऊंचा करने के लिए हजारों साहित्य बना दिए जाते हैं, किंतु हर साहित्य एक सत्य नहीं होता, वह सियासत भी हो सकती है! जबकि हर सत्य हजारों साहित्य सृजित कर सकता है।

जीवन एक साहित्य है, जबकि मृत्यु एक सत्य, जीवन तमाम रस से परिपूर्ण होता है। कोई एक रस स्थायी भी नहीं होता। जीवन नीरस भी हो सकता है, या यूं कहें कि जीवन में किसी एक ही रस का प्रवाह भी नीरसता ही होगी, यहां तक कि खुशी की भी! ठीक मौसम की तरह,

एकसमान मौसम अवसाद के साम्राज्य में धकेल देता है,और अवसाद के पीछे ही आत्महत्या की परिधि होती है।

जलवायु परिवर्तन भी एक ऐसा ही सत्य है जो आंकड़ों की कालाबाजारी, अर्थशास्त्र की बाजीगरी और सिद्धांतों की कलाबाजी से लगातार दबाया जा रहा है, किंतु यह सिगरेट से कैंसर की यात्रा जैसा ही है, जैसे कि सिगरेट के धुएं को अपने पिता से छुपाया जा सकता है किंतु अपने फेफड़ों से नहीं, पिता से छुपाया गया यह तत्कालीन अपराध अकाल मृत्यु देकर चिता में छुपा डालता है।

अनियंत्रित कार्बन उत्सर्जन किसान को धीरे-धीरे सुलगाता है, क्योंकि इसका सीधा असर मौसम और फसल की पैदावार पर होता है।

“बेईमान” मौसम एलीट वर्ग को पिकनिक पर जाने के लिए तैयार करता है तो किसान को कर्ज लेने के लिए मजबूर करता है। पहले मौसम प्राकृतिक रूप से बेईमान हुआ करता था अतः उसके सिद्धांत हुआ करते थे किंतु आज मौसम की बेईमानी “कृत्रिम” है इसीलिए प्राकृतिक आपदा बन जाती है। बाढ़, हिमस्खलन, सूखा जैसी समस्याएं पूर्व काल से चली आ रही हैं। पिछले कुछ दशकों में न सिर्फ इनकी आवृत्ति बढ़ी है बल्कि तीव्रता भी आक्रामक हुई है ।

जलवायु परिवर्तन पर विचार करना विकास के विरुद्ध “बुरी” नकारात्मकता नहीं है, यह एक सशक्त आदर्श नकारात्मकता है। हर नकारात्मकता निराशा नहीं हुआ करती। हवाई जहाज में पैराशूट को रखना आदर्श नकारात्मकता है जो हमें आपातकाल में सुरक्षा प्रदान करती है,

जलवायु परिवर्तन को आज ही गंभीरता से लेना हमें भविष्य की गंभीर परिस्थितियों से बचाएगा। लंबे समय तक सत्य को दबाना खुद का समय से पहले राम नाम सत्य कराना है।

gajendra tripathi

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