Opinion

ईश्वर चंद्र विद्यासागर : नारी जागरण एवं समाज सुधारों के अग्रदूत

–  पुण्यतिथि 29 जुलाई पर विशेष –

भारत में 19वीं शती में जिन लोगों ने सामाजिक परिवर्त्तन में बड़ी भूमिका निभाई, उनमें ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका जन्म 26 सितम्बर 1820 को ग्राम वीर सिंह (जिला मेदिनीपुर, बंगाल) में हुआ था। धार्मिक परिवार होने के कारण उन्हें अच्छे संस्कार मिले।

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर नौ वर्ष की अवस्था में संस्कृत विद्यालय में प्रविष्ट हुए और अगले 13 वर्ष तक वहीं रहे। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; अतः खर्च निकालने के लिए उन्होंने दूसरों के घरों में भोजन बनाया और बर्तन साफ किये। वह रात में सड़क पर जलने वाले लैम्प के नीचे बैठकर पढ़ा करते थे। इस कठिन साधना का यह परिणाम हुआ कि उन्हें संस्कृत की प्रतिष्ठित उपाधि ‘विद्यासागर’ प्राप्त हुई।

1841 में वे कोलकाता के फोर्ट विलियम कालेज में पढ़ाने लगे। 1847 में संस्कृत महाविद्यालय में सहायक सचिव और फिर प्राचार्य बने। वे शिक्षा में विद्यासागर और स्वभाव में दया के सागर थे। एक बार उन्होंने देखा कि मार्ग में एक वृद्ध और असहाय महिला पड़ी है। उसके शरीर से दुर्गंध आ रही थी। लोग उसे देखकर मुँह फेर रहे थे; पर वह उसे उठाकर घर ले आये। उसकी सेवा की और उसके भावी जीवन का भी प्रबंध किया।

ईश्वर चन्द्र जी अपनी माता के बड़े भक्त थे। वे उनका आदेश कभी नहीं टालते थे। एक बार उन्हें माँ का पत्र मिला, जिसमें छोटे भाई के विवाह के लिए घर आने का आग्रह किया था। उन दिनों वे कोलकाता के सेंट्रल कालेज में प्राचार्य थे। उन्होंने प्रबंधक से अवकाश मांगा; पर उन्होंने मना कर दिया। इस पर ईश्वर चन्द्र ने अपना त्यागपत्र लिखकर उनके सामने रख दिया। विवश होकर प्रबंध को अवकाश स्वीकृत करना पड़ा।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जब बंगाल में प्रवास पर थे, तब ईश्वर चन्द्र ने उनके विचारों को सुना। वे उनसे बहुत प्रभावित हुए। उन दिनों बंगाल में विधवा नारियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। बाल-विवाह और बीमारी के कारण बाल विधवाओं का शेष जीवन बहुत कष्ट और उपेक्षा में बीतता था। ऐसे में ईश्वर चन्द्र जी ने नारी उत्थान के लिए प्रयास करने का संकल्प लिया।

उन्होंने धर्मग्रन्थों के माध्यम से  विधवा-विवाह को शास्त्र सम्मत सिद्ध किया। वे पूछते थे कि यदि विधुर पुनर्विवाह कर सकता है, तो विधवा क्यों नहीं कर सकती? उनके प्रयास से 26 जुलाई 1856 को विधवा विवाह अधिनियम को गर्वनर जनरल ने स्वीकृति दे दी। उनकी उपस्थिति में 7 दिसम्बर 1856 को उनके मित्र राजकृष्ण बनर्जी के घर पर पहला विधवा विवाह सम्पन्न हुआ।

इससे बंगाल के परम्परावादी लोगों में हड़कम्प मच गया। ऐसे लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गए; पर वे शांत भाव से अपने काम में लगे रहे। बंगाल की एक अन्य महान विभूति  रामकृष्ण परमहंस भी उनके समर्थकों में थे।

ईश्वर चन्द्र ने स्त्री शिक्षा का भी प्रबल समर्थन किया। उन दिनों बंगाल में राजा राममोहन राय सती प्रथा के विरोध में काम कर रहे थे। ईश्वर चन्द्र  ने उनका भी साथ दिया और फिर इसके निषेध को भी शासकीय स्वीकृति प्राप्त हुई।

नारी शिक्षा और उत्थान के प्रबल पक्षकार ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का हृदय रोग की वजह से 29 जुलाई 1891 को देहान्त हो गया। भारतीय स्त्री समाज उनका चिर ऋणी रहेगा।

सुरेश बाबू मिश्र

(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)

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