जयंती 25 मई पर विशेष

रतंत्रता के दिन थे। हर देशवासी के मन में भारत माता की दासता की बेड़ियां काटने की उत्कट अभिलाषा जोर मार रही थी। कुछ लोग शांति के मार्ग से इन्हें तोड़ना चाहते थे तो कुछ जैसे को तैसा वाले मार्ग को अपना कर बम-गोलियों से अंग्रेजों को सदा के लिए सात समंदर पार भगाना चाहते थे। ऐसे समय में बंगभूमि ने ऐसे अनेक सपूतों को जन्म दिया जिनकी एक ही चाह और एक ही राह थी- भारत माता की पराधीनता से मुक्ति।

25 मई 1886 को बंगाल के चनंद्रनगर में रासबिहारी बोस का जन्म हुआ। वे बचपन से ही क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आ गए थे। हाईस्कूल उत्तीर्ण करते ही वन विभाग में उनकी नौकरी लग गई। यहां काम करने के दौरान उन्हें अपने विचारों को क्रियान्वित करने का अच्छा अवसर मिला, चूंकि सघन वनों में बम, गोली का परीक्षण करने पर किसी को शक नहीं होता था।

रासबिहारी बोस का सम्पर्क दिल्ली, लाहौर और पटना से लेकर विदेश में स्वाधीनता की अलख जगा रहे क्रातिवीरों तक से था। 23 दिसम्बर 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा निकलने वाली थी। रासबिहारी बोस ने योजना बनाई कि वायसराय की सवारी पर बम फेंककर उसे सदा के लिए समाप्त कर दिया जाए। इससे अंग्रेजी शासन में जहां भय पैदा होगा, वहीं भारतीयों के मन में उत्साह का संचार होगा।

योजनानुसार रासबिहारी बोस और बलराज ने चांदनी चौक से यात्रा गुजरते समय एक मकान की दूसरी मंजिल से बम फेंका; दुर्भाग्यवश वायसराय को कुछ चोट ही आयी, वह मरा नहीं। रासबिहारी बोस फरार हो गए। पूरे देश में उनकी तलाश होने लगी। ऐसे में उन्होंने अपने साथियों की सलाह पर विदेश जाकर देशभक्तों को संगठित करने की योजना बनाई। उसी समय विश्वकवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर जापान जा रहे थे। वे उनके साथ उनके सचिव पी.एन.टैगोर के नाम से जापान चले गए। पर जापान में वे विदेशी नागरिक थे। जापान और अंग्रेजों के समझौते के अनुसार पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर भारत भेज सकती थी। अतः कुछ मित्रों के आग्रह पर उन्होंने अपने शरणदाता सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से उसके आग्रह पर विवाह कर लिया। इससे उन्हें जापान की नागरिकता मिल गई। यहां तोसिको का त्याग भी अतुलनीय है। उसने रासबिहारी के मानव कवच की भूमिका निभाई। जापान निवास के सात साल पूरे होने पर उन्हें स्वतंत्र नागरिकता मिल गई। अब वे कहीं भी जा सकते थे।

उन्होंने इसका लाभ उठाकर दक्षिण एशिया के कई देशों में प्रवास कर वहां रह रहे भारतीयों को संगठित कर अस्त्र-शस्त्र भारत के क्रांतिकारियों के पास भेजे। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध की आग भड़क रही थी।

रासबिहारी ने जापान में रहकर इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और बाद में मोहन सिंह के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज का गठन किया। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध का लाभ उठाने के लिए जापान के साथ आजाद हिंद की सरकार के सहयोग की घोषणा कर दी। उन्होंने जर्मनी से सुभाष चंद्र बोस को बुलाकर “सिंगापुर मार्च” किया और 1941 में उन्हें आजाद हिंद की सरकार का प्रमुख तथा फौज का प्रधान सेनापति घोषित किया।

देश की स्वतंत्रता के लिए विदेश में अलख जगाते और संघर्ष करते हुए रासबिहारी बोस का शरीर थक चुका था। उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया था। 21 जनवरी 1945 को वे भारत माता को स्वतंत्र देखने की अपूर्ण अभिलाषा लिये हुए ही चिरनिद्रा में लीन हो गए।

आजाद हिंद फौज

आजाद हिंद फौज की स्थापना टोक्यो (जापान) में 1942 में रासबिहारी बोस ने की थी। उन्होंने इस फौज के गठन पर विचार के लिए 28 से 30 मार्च तक  एक सम्मेलन बुलाया और इसकी स्थापना हुई। इसका उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना और भारत को स्वतंत्र कराना था।

सुरेश बाबू मिश्रा

(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)

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