Opinion

जयंती : हिंदी के बेजोड़ कथा शिल्पी एवं उपन्यासकार विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर हिंदी साहित्य के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। वे बेजोड़ कथा शिल्पी एवं कालजयी रचनाकार माने जाते हैं। उनकी कहानी-उपन्यासों में भारतीय अस्मिता की झलक मिलती है। ‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी रचना लिखने वाले विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून 1912 को मीरापुर (मुजफ्फरनगर) में हुआ था। उनका प्रारम्भिक जीवन हरियाणा के हिसार में व्यतीत हुआ। वहां से ही उन्होंने 1929 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वे नौकरी करने लगे। साथ-साथ ही उन्होंने हिंदी भूषण,  प्राज्ञ, हिंदी प्रभाकर और बीए भी किया। 1944 में वे दिल्ली आ गए। कुछ समय अखिल भारतीय आयुर्वेद महामंडल और आकाशवाणी में काम करने के बाद वे पूरी तरह मसिजीवी हो गए।

वह स्वतंत्रता आंदोलन में 1940 और 42 में गिरफ्तार हुए और शासनादेश के कारण उन्हें पंजाब छोड़ना पड़ा। उन्हीं दिनों उन्होंने खादी पहनने का संकल्प लिया और उसे जीवनभर निभाया। उन्होंने हिंदी की प्रायः सभी विधाओं कहानी,  नाटक,  उपन्यास, यात्रावृत, रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध, अनुवाद, बाल साहित्य आदि में प्रचुर लेखन किया। फिर भी वे स्वयं को मुख्यतः कहानीकार ही मानते थे।

विष्णु जी अपने प्रारम्भिक जीवन में रंगमंच से भी सम्बद्ध रहे। उन्होंने अनेक पुस्तकों का सम्पादन किया। हिंदी की इस सेवा के लिए उन्हें देश-विदेश की हजारों संस्थाओं ने सम्मानित किया। राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ने भी उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया।

विष्णु जी ने अपना जीवन अपने ढंग से जिया, इसके लिए उन्होंने किसी से समझौता नहीं किया। भारत देश और हिंदी भाषा के प्रति उनके मन में बहुत प्रेम था। अत्यंत स्वाभिमानी विष्णु जी ने कभी सत्ता के सम्मुख घुटने नहीं टेके। स्वामी दयानंद और गांधी जी के विचारों की छाप उनके मन, वचन और कर्म से सर्वत्र दिखाई देती थी। वे स्वतंत्र चिंतन के पक्षधर थे, अतः विरोधी विचारों का भी खुलकर स्वागत करते थे।

उन्होंने देश के हर भाग की यात्रा कर समाज जीवन का व्यापक अनुभव बटोरा था। इसीलिए उनका लेखन रोचक और जीवंत होता था। जब वे दिल्ली में होते थे तो सुबह गांधी समाधि पर टहलने अवश्य जाते थे। इसी प्रकार वे शाम को मोहन सिंह प्लेस स्थित कॉफी हाउस पहुंचते थे जहां कई पीढ़ी के लेखकों से उनकी भेंट हो जाती थी। वहां साहित्य पर गहरा विमर्श तो होता ही था, हंसी-मजाक भी भरपूर होती थी। देश भर के हजारों लेखकों एवं पाठकों से वे पत्र व्यवहार द्वारा सम्पर्क बनाकर रखते थे।

अपनी रचनाओं में वे जाति, भाषा, धर्म के आधार होने वाले भेद और नारी समस्याओं को प्रखरता से उठाते थे। समय, समाज और संस्कृति पर की गई उनकी टिप्पणियां शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। आकाशवाणी के लिए लिखे गए रूपक और नाटकों में उन्होंने कई नये प्रयोग किये जिसे श्रोताओं ने बहुत सराहा।

‘आवारा मसीहा’ उनकी सर्वाधिक चर्चित रचना है। इसके लिए उन्होंने जीवन के 14 वर्ष लगाए। उन्होंने बांग्ला भाषा सीखकर शरद चंद्र के सैकड़ों समकालीन लोगों से बात की तथा बिहार, बंगाल और बर्मा (म्यांमार) का व्यापक भ्रमण किया। इससे पूर्व शरद चंद्र की कोई प्रामाणिक जीवनी नहीं थी। अतः हिंदी के साथ ही बांग्लाभाषियों ने भी इसका भरपूर स्वागत किया।

भारतीय साहित्य के इस भीष्म पितामह का 11 अप्रैल 2009 को 97 वर्ष की सुदीर्घ आयु में देहांत हुआ। वे जीवन भर अतिवाद, रूढ़िवाद और कर्मकांडों से मुक्त रहे। उनकी इच्छानुसार मृत्यु के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के उपयोग के लिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) को दान कर दिया गया।

सुरेश बाबू मिश्रा

(साहित्य भूषण से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार)

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