– बलिदान दिवस 11 अगस्त पर विशेष –
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर सन् 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस और मां का नाम लक्ष्मीप्रिय देवी था। बालक खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि वे कक्षा 9 के बाद ही आजादी की पथरीली राहों पर चल पड़े। उस समय वे 16 वर्ष के किशोर थे। देश में बंग-भंग आन्दोलन चल रहा था। अंग्रेज सरकार पूरी ताकत से इस आन्दोलन को कुचलने में लगी थी। ऐसे समय में किंग्सफोर्ड कलकत्ता का मुख्य मजिस्टेट बनकर आया। किसी हिन्दुस्तानी मुल्जिम को वह नहीं छोड़ता था। बंगाली जनता ऐसे जुल्म की आदी नहीं थी, इसलिए क्रान्तिकारियों ने किंग्सफोर्ड को सबक सिखाने की योजना बनाई।
किंग्सफोर्ड के खिलाफ माहौल बनता जा रहा था, इसलिए अंग्रेज सरकार उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित हो उठी। सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उसका तबादला मुजफ्फरपुर कर दिया गया। क्रान्तिकारी जब उसे कलकत्ता में खत्म न कर सके, तो मुजफ्फरपुर जाकर खत्म करने की योजना बनाई। किंग्सफोर्ड की हत्या का काम खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी को सौंपा गया।
इन दोनों किशोरों को आवश्यक साज-सामान देकर मुजफ्फरपुर भेजा गया। वहां जाकर ये दोनों एक धर्मशाला में ठहरे। यहां उनका काम किंग्सफोर्ड की गतिविधियों पर नजर रखना था। दोनों अपने काम में लग गए। कचहरी के सिवा किंग्सफोर्ड बाहर कम ही जाता था। दो सिपाही हमेशा उसके साथ रहते थे। वह रात में कभी-कभी घोड़ागाड़ी में बैठकर यूरोपियन क्लब जाया करता था। खुदीराम बोस और चाकी ने तय किया कि किंग्सफोर्ड को मारने का सबसे बढ़िया तब मौका है, जब वह क्लब जा रहा हो और रास्ते में ही उसे गोली मार दी जाए।
खुदीराम और प्रफुल्ल एक हफ्ते तक किंग्सफोर्ड की निगरानी करते रहे। किंग्सफोर्ड की घोड़ागाड़ी को उन्होंने अच्छी तरह पहचान लिया। पर दुर्भाग्य से उन्हें यह पता नहीं चल सका कि ऐसी ही एक घोड़ागाड़ी सरकारी वकील कैनेडी के पास भी है।
किंग्सफोर्ड की हत्या करने के उद्देश्य से खुदीराम बोस और प्रफुल्ल कुमार चाकी रात के आठ बजे यूरोपियन क्लब जा पहुंचे। वे अपने शिकार की तलाश में एक पेड़ की आड़ में खडे़ हो गए। रात को लगभग नौ बजे एक घोड़ागाड़ी क्लब की ओर आती दिखाई दी। वह गाड़ी कैनेडी परिवार की थी। गाड़ी पर उसकी औरत और लड़की बैठी थी। खुदीराम बोस ने इसे किंग्सफोर्ड की गाड़ी समझा और उसी पर बम फेंक दिया। गाड़ी नष्ट हो गयी। दोनों महिलाएं मारी गईं। घोड़ा और गाड़ीवान भी घायल हो गया।
बम बड़ा भयानक था। वह एक जोरदार धमाके के साथ फटा था। इन लोगों के पास तीन पिस्तौलें भी थीं। अगर बम नहीं फटता तो उन्हें पिस्तौलों का इस्तेमाल करना था। बम के फटते ही दोनों किशोर अलग-अलग दिशाओं में भाग निकले। वे दोनों समझ रहे थे कि वे किंग्सफोर्ड को मारने में सफल हो गए हैं। चाकी समस्तीपुर स्टेशन की ओर भागे और खुदीराम बेनीपुर स्टेशन की ओर भागते चले गए।
पुलिस द्वारा पकड़ लिये जाने पर प्रफुल्ल कुमार चाकी ने अपने रिवाल्वर से ही गोली मारकर अपनी आहुति दे दी। इधर खुदीराम रातभर की चौबीस-पच्चीस मील की यात्रा के पश्चात् बहुत थक गए थे। भूख-प्यास से उनका बुरा हाल था। उनकी हुलिया एकदम बिगड़ा हुआ था।
बेनीगांव, बेनी स्टेशन के करीब ही था। खुदीराम ने सोचा की पहले कुछ नाश्ता कर लिया जाए। उसके बाद ही स्टेशन जाया जाए। वे चाय-नाश्ता करने के लिए एक होटल पर पहुंचे। वहीं पर पुलिस के दो सिपाही फतह सिंह और शिव प्रसाद सिंह खड़े थे। होटल में लोग मुजफ्फरपुर के बम कांड के बारे में बात कर रहे थे। एक आदमी बोला कि बम विस्फोट में बेचारी दो औरतें मारी गईं।
“तो क्या किंग्सफोर्ड नहीं मरा?“ खुदीराम बोस के मुंह से अचानक निकल गया। यह सुनते ही सिपाहियों ने खुदीराम बोस को पकड़ लिया। वे उनसे पूछ-ताछ करने लगे। खुदीराम उनके सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं दे पाये, इसलिए सिपाही उनको पकड़कर पुलिस चौकी ले गए। वहां पर उनकी तलाशी ली गई, तो दो रिवाल्वर मिले।
पुलिस को सन्देह हो गया कि हो न हो खुदीराम ही वह युवक है, जिसने कल रात मुजफ्फरपुर में बम मारकर कैनेडी परिवार की हत्या की थी। वे उन्हें गिरफ्तार कर मुजफ्फरपुर ले गई। खुदीराम ने पूछ-ताछ के दौरान अपना अपराध स्वीकार कर लिया। इस बात का उन्हें दुःख था कि बम से दो महिलाएं मारी गईं और अत्याचारी किंग्सफोर्ड बच निकला।
खुदीराम बोस पर मुकदमा चला। उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। जिस समय उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी, उस समय उनकी उम्र केवल 16 साल थी। 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस को फांसी दे दी गई। जनता ने खुदीराम की शवयात्रा बड़े जोश के साथ निकाली। उनके वकील कालीदास मुखर्जी ने उनकी चिता को आग लगाई। चिता की आग धू-धू करके जल उठी। उसकी चिनगारियां सारे भारत में फैल गईं। वे चिनगारियां ही आगे चलकर अंग्रेजी शासन के विनाश का कारण बनीं।
सुरेश बाबू मिश्रा
(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)