क्टूबर के शुरुआती दिनों की वह शाम शरद ऋतु की दस्तक का एहसास कराने लगी थी। करीब 11 किलोमीटर मोपेड चलाकर दैनिक जागरण पहुंचने के बाद बैग को डेस्क पर रख मैं शरीर को सीधा करने का प्रयास कर ही रहा था कि जनरल डेस्क इंचार्ज शिवप्रसाद सिंह ने यूएनआई के तारों का एक बंच मेरी तरफ बढ़ा दिया, “लीजिए पंडितजी इन्हें सही से पढ़ लीजिए, समझ लीजिए और भन्न से एक सात स्टिक की खबर बना दीजिए। इसे संभवतः पहले पेज पर बॉटम लगना है। उसी हिसाब से हेडिंग, सबहेड और क्रॉसर लगाइएगा।”

मैं जनरल डेस्क पर शिवप्रसाद जी के दायीं ओर की कुर्सी पर बैठ कर तार पढ़ने लगा। अचानक याद आया कि उन्होंने दूसरा डायलॉग तो बोला ही नहीं। अनायास ही मुस्कुराते हुए मैंने शिवप्रसाद जी की ओर तिरछी नजर से देखा, जैसे उनके अगले डायलॉग की इंतजार हो। शिवप्रसाद जी मेरे मनोभाव को ताड़ गए। बोले, “तिवारी जी (प्रायः मुझे त्रिपाठी की जगह तिवारी ही कहते थे) आपको अब चार महीने हो रहे हैं। क्या अब भी बताना पड़ेगा कि ट्रांसलेशन नहीं करना है बल्कि ट्रांसवर्जन करना है। सीधे-सीधे ट्रांसलेट करने में कई बार अनर्थ हो जाता है। इसलिए पहले अंग्रेजी की पूरी खबर पढ़ लीजिए और फिर अपने शब्दों में हिंदी में लिखिए।”

मैं शपथ लेकर कह सकता हूं कि अपने पत्रकारिता के कैरियर में मैंने जितने भी जनरल डेस्क प्रभारियों के साथ काम किया है, शिवप्रसाद जी का स्थान उनमें सबसे ऊपर है। ऊपर उनके जो डायलॉग हैं, वे कोई सामान्य वाक्य न होकर पत्रकारिता के नए छौनों के लिए सबक हैं- जो भी खबर आपको डेस्क पर मिले पहले उसे ध्यान से पढ़कर आत्मसात कीजिए और फिर निश्चित समय में तेजी के साथ निर्धारित शब्दों या आकार में बनाइए।

जिस दिन की उक्त घटना है, उसी दिन एक और बड़ा सबक मिला। करीब आठ बजे संपादक बच्चन सिंह न्यूज रूम में आए और तीन-चार कागज शिवप्रसाद जी की ओर बढ़ा दिए, “शिवप्रसाद जी इस बेबाक को कॉम्पसेट में भेज दीजिए। अंदर कहीं लगवा दीजिएगा।” चूंकि मैं बेबाक कॉलम का मुरीद था, सो उन कागजों की ओर उत्सुकता से देखने लगा। शिवप्रसाद जी ने वे पन्ने मेरी तरफ ही बढ़ा दिए, “लीजिए तिवारी जी, इन्हें संपादित कर टाइपिंग के लिए दे आइए।” मुझे तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई। एक ही सांस में पूरा बेबाक पढ़ने के बाद टाइपिंग के लिए दे आया। करीब साढ़े आठ बजे बच्चन जी न्यूज रूम में फिर दाखिल हुए और सवाल किया, “शिवप्रसाद जी वह (बेबाक) भेज दिया टाइप होने के लिए।” शिवप्रसाद जी ने कोई जवाब देने के बजाय मेरी तरफ देखा। बच्चन जी ने चेहरा थोड़ा झुकाया, चश्मा कुछ सरक कर नाक पर टिक गया और मेरी तरफ सवाल उछला, “सही से पढ़कर संपादित कर दिया था?” घबराहट में मेरे मुंह से निकला, “सर वो…वो तो आपका लिखा हुआ था।” यह सुनना था कि बच्चन जी हत्थे से उखड़ गए। चेहरा पर नाराजगी झलकने लगी और आवाज कुछ तेज हो गई, “जो भी कॉपी डेस्क पर आपके सामने आती है, उसके संपादन और भले-बुरे की जिम्मेदारी आपकी होती है, भले ही वह कॉपी मेरी लिखी हो या नरेंद्र मोहन की। कॉम्पसेट से वह कॉपी वापस लाइए और सही से संपादित करिए।”

बच्चन जी अपनी बात कह अपने चैंबर में लौट गए, इधर शिवप्रसाद जी ने बात आगे बढ़ाई, “ये संपादक जी की नाराजगी नहीं, नसीहत है। इसको हमेशा याद रखिएगा। जाइए क़ॉपी वापस लाकर सही से संपादित करिए।”

याद रखिए, बच्चन जी बरेली संस्करण के संपादक थे और मैं चार माह पुराना प्रशिक्षु। फिर भी एक संपादक अपना अहम त्याग कर पत्रकारिता के नवागंतुक से अपनी लिखी कॉपी को सही से संपादित करने को कह रहा था। बच्चन जी हिंदी के उन संपादकों में रहे हैं जिन्होंने नए लोगों पर पूरा भरोसा किया और उन्हें तराश कर आगे बढ़ाया। उन्हीं के “स्कूल” से निकले तमाम पत्रकार आज हिंदी पत्रकारिता में बड़े नाम हैं। दैनिक जागरण के बरेली संस्करण से निकले संजीव पालीवाल, शरद मौर्य, इकबाल रिजवी, मदन मोहन सिंह तो कुछ उदाहरण मात्र हैं।  

आज 30 साल बाद सोचता हूं कि उस दिन सचमुच कितना बड़ा सबक दिया था बच्चन जी ने। उस सबक का ही नतीजा रहा कि खबरों के संपादन के मामले में मेरा रिकॉर्ड आज तक करीब-करीब बेदाग है। खबरों की प्रस्तुति में भले ही कुछ ऊंच-नीच हो गई हो पर संपादन के मामले में अपन ठीक-ठाक रहे हैं।

21 मई 1991 की वह रात भी जहन में हमेशा ताजा रहेगी। कुमाऊं संस्करण फाइनल कर भोजन करने के बाद मैं न्यूज रूम में जाने के बजाय ट्रेलीप्रिंटर की तरफ चला गया। अपनी ओर मुझे आता देखने के बावजूद टीपी ऑपरेटर उम्मेद सिंह ने आवाज दी, “सर…सर।” चेहरे पर घबराहट साफ झलक रही थी। इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, उम्मेद सिंह ने टेलीप्रिंटर की ओर इशारा किया। यूएनआई पर मनहूस इबारत उभर चुकी था- Flash, Flash, Flash… Rajiv Gandhi assassinated. उस तार को फाड़ मैं न्यूज रूम की ओर पलटा ही था कि प्रिंटिंग मशीन का बजर बज गया। यानी कुमाऊं की छपाई शुरू होने ही वाली थी। तार शिवप्रसाद जी और संयोगवश वहीं खड़े बच्चन जी को पेश किया तो बच्चन जी का आदेश हुआ, “जाइए मशीन रुकवाइए। ये खबर कुमाऊं में भी जाएगी, भले ही छोटी सी जा पाए।”

संसाधनों के अभाव में हम लोगों ने उस रात के अन्य संस्करण किस तरह निकाले, इस पर पूरा आख्यान लिखा जा सकता है। बहरहाल, यहां विषय यह नहीं है। अगले दिन मैंने तुरंत मशीन रुकवाने के बच्चन जी के आदेश का जिक्र किया तो शिवप्रसाद जी का जवाब था- पत्रकार में दो गुण बहुत जरूरी हैं- पायलट की तरह तुरंत निर्णय लेने की क्षमता और किसी भी बड़ी खबर को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचाने का जज्बा।

बरेली जागरण ने मुझे बहुत कुछ दिया-सिखाया। कुछ ऐसे वरिष्ठ साथी थे, जिन्होंने प्रत्यक्ष तौर पर तो ज्यादा कुछ नहीं सिखाया पर उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। आर.के. सिंह, निर्भय सक्सेना और अनिल के. अंकुर ऐसे ही नाम हैं। रिपोर्टिंग के दौरान वे आर.के. सिंह ही थे जिनसे सीखने को मिला कि खबर कहां से और कैसे निकाली जाती है और किस तरह डवलप होती है। आर.के. भाई उन रिपोर्टरों में रहे हैं जो किसी दिन अगर पांच बड़ी खबरें लिखते थे तो दो-चार खबरें उनके पास रिजर्व में भी होती थीं। निर्भय जी के जनसंपर्क और जुझारू स्वभाव का मैं हमेशा कायल रहा हूं। और अंकुर जी!  भारी दबाव के समय भी चेहरे पर मुस्कान और नए साथियों पर पूरा भरोसा। यह अंकुर जी का नेतृत्व और साथियों पर भरोसा का ही परिणाम था कि प्रशिक्षु भर्ती हुए शरद मौर्य पांच-छह महीने बाद ही उनकी अनुपस्थिति में डेस्क संभालने लगे थे। मैं जब डेस्क से रिपोर्टिंग में भेजा गया तो अंकुर जी ने हौसला बढ़ाते हुए कहा था, “जनरल डेस्क से आए हो तो जानते ही होगे कि खबर कैसे ड्राफ्ट की जाती है और उसे उसकी “औकात” के हिसाब के कितना बड़ा बनाना चाहिए। अब खबर कैसे निकाली जाती है, यह आरके से सीखो और हेडिंग लगाना शरद जी से।”  

पर क्या इतना ही काफी है? पत्रकारिता ऐसा क्षेत्र है जहां रोजाना नई तरह की खबरें और चुनौतियां सामने होती हैं। हर घटना कुछ सबक दे जाती है, बशर्ते आपके आंख-कान खुले हों तथा दिमाग चौकन्ना, विश्लेषणात्मक  और तर्कशील हो। जिसने सही राह पकड़ ली, वह आगे बढ़ता गया, बाकी तो भीड़ का हिस्सा हैं ही।

गजेन्द्र त्रिपाठी

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