संसद का मानसून सत्र प्रारम्भ हुए लगभग दो सप्ताह बीत चुके हैं। विगत 19 जुलाई से शुरू हुए संसद सत्र के ये दो सप्ताह हंगामे की भेट चढ़ गए। विपक्ष पहले दिन से ही पेगासस जासूसी मामले की जांच कराने, किसान आंदोलन और बढ़ती मंहगाई के मुद्दों पर लगातार सरकार पर हमलावर है। विपक्षी सदस्यों के हंगामे एवं शोरगुल के कारण लोकसभा एवं राज्यसभा की कार्यवाही बार-बार स्थगित करनी पड़ रही है।

संसद लोकतंत्र का सर्वोच्च मंच है। लोकसभा और राज्यसभा में स्वस्थ बहस की परम्परा अबाध गति से चलती रहे यह सत्तापक्ष एवं विपक्ष दोनों की साझा जिम्मेदारी है। सदन में लोकसभा के अध्यक्ष एवं राज्यसभा के सभापति का पद दलगत राजनीति से ऊपर होता है। सदन के सुचारू संचालन में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसलिए सत्तापक्ष और विपक्ष के सभी सांसदों को इन पदों की गरिमा को अक्षुण्य बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए।

वर्तमान परिवेश में संसदीय बहस या चर्चा के दौरान सांसदों के आचरण भारी बदलाव देखने को मिल रहा है। संसदीय कार्यवाही के दौरान लगातार टोका-टाकी, जोर-जोर से चीखना-चिल्लाना, बात-बात पर नारेबाजी, बेल में आकर हंगामा करना, सदन का बहिष्कार आदि आए दिन की बात हो गई है। यह संसदीय परम्पराओं के विरुद्ध तो है ही, स्वस्थ लोकतंत्र के लिए भी चिंताजनक है।

संसद में प्रत्येक सांसद को अपनी बात रखने का पूरा हक है। जनता के हित और विकास से जुड़े मुद्दों तथा देश की प्रगति एवं बेहतरी से जुड़े अध्यादेशों पर उन्हें खुलकर अपनी राय रखनी चाहिए मगर शब्दों की मर्यादा बनी रहे इसका सभी को पूरा ध्यान रखना चाहिए।

सांसदों को यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि संसद सत्र के दौरान उन्हें सदन में उपस्थित रहने तथा संसद में होने वाली बहस और चर्चा में भाग लेने के एवज में भारी भरकम धनराशि भत्तों के रूप में मिलती है। लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही को सुचारू रूप से संचालित करने में जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये प्रतिदिन खर्च होते हैं। सांसद जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हैं और जनता के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। इसलिए सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि वे मिल बैठकर ऐसी रणनीति तैयार करें जिससे लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही सुचारू रूप से चलती रहे और सदन की गरिमा बनी रहे।

सुरेश बाबू मिश्रा

(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)

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