BareillyLive : भारत में बच्चों-छात्रों में अवसाद और आत्म हत्या के मामले पिछले कुछ सालों से बढ़ते जा रहे हैं, देश में आज भी मानसिक बीमारियों को लेकर पर्याप्त जागरूकता नहीं है और लोग इन्हें बीमारी के बजाय दिमागी फितूर ज्यादा समझते हैं। एक सर्वे के अनुसार, सिर्फ़ कोटा में वर्ष 2023 में अब तक 20 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। अब चाहे राजस्थान का कोटा शहर हो, पूरे देश का मामला हो या पूरी दुनिया की बात हो, आत्महत्या के आंकड़े दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। भारत का ही जिक्र करें तो एनसीआरबी की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार देश में पूरे वर्ष में 13089 छात्रों ने आत्महत्या की। इसका मतलब है कि देश में प्रतिदिन 35 छात्र आत्महत्या कर रहे हैं। ये आंकड़े भयावह हैं और इनसे भी भयावह यह आशंका है कि आगे भी इन आत्म हत्याओं में कमी आने की संभावना नहीं है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि इस दुष्चक्र का समाधान क्या है। हम अपने छात्रों-बच्चों को कैसे बचा सकते हैं। मानसिक बीमारियां हमारे युवाओं को काल के गाल की तरफ ले जा रही हैं। भारत के युवा ही इसकी सबसे बड़ी ताकत हैं लेकिन जिस तरह युवा वर्ग में आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं, यह भविष्य का बड़ा संकट बन सकता है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम मानसिक बीमारी के लक्षणों को समझें और इसके निराकरण के लिए विशेषज्ञों से सलाह लें। माता-पिता को सबसे पहले यह समझना होगा कि बच्चों का पालन-पोषण पार्ट-टाइम जॉब नहीं है। बच्चों को हमेशा ही माता-पिता की देखभाल, प्रेम और संबल की जरूरत रहती है। सबसे पहले यह जरूरी है कि माता-पिता द्वारा बच्चों के पालन-पोषण और उनसे संपर्क का तरीका ऐसा होना चाहिए कि बच्चा किसी भी तरह मानसिक बीमारी का शिकार नहीं हो। फिर भी अगर किसी कारण से ऐसा होता है तो उन्हें इसके लक्षण पहचानकर इसके निदान और समाधान के लिए विशेषज्ञ की सहायता लेनी चाहिए।
बच्चे पहले जिन गतिविधियों में दिलचस्पी लेते थे उनमें दिलचस्पी गंवाना और अकेले या चुपचाप रहना मानसिक बीमारी के सामान्य लक्षण हैं। जैसे पहले बच्चे को कोई चीज़ खाने की बहुत रुचि हो लेकिन अब अगर वह उस चीज़ को भी खाने से आनाकानी करे, बहुत देर तक सोता ही रहे या बिल्कुल भी नहीं सोए। अपने दोस्तों से मिलने या उनके साथ रहने में इच्छुक नहीं हो। घर में भी खुद को अकेला रखे या बातचीत से बचे, यदि माता-पिता को बच्चों में ऐसे लक्षण दिखते हैं तो उन्हें मनोविज्ञानियों से मदद लेनी चाहिए। अगर माता-पिता अपने बच्चों में इन परिवर्तनों पर ध्यान देते हैं तो इनका जल्द निदान और समाधान संभव है। बीमारी के ज्यादातर मामले गंभीर नहीं होते हैं और इनके इलाज के लिए मनोविज्ञानी (Psychologist) का परामर्श और मार्गदर्शन ही काफी होता है। केवल गंभीर मामलों में ही मनोचिकित्सक (Psychiatrist) के हस्तक्षेप की जरूरत होती है।
बच्चों को मानसिक बीमारी से दूर रखने के तरीके
बच्चों के मानसिक बीमारी के शिकार होने में कुछ हद तक माता-पिता की जिम्मेदारी होती है। आजकल की भागदौड़ और दोहरी आय वाली जीवनशैली में हम शुरुआत से ही बच्चों को समय नहीं दे पाते हैं। मोबाइल-टीवी जैसे उपकरण बच्चों के लिए माता-पिता का सब्सिट्यूट बन जाते हैं। फिर आजकल के एकल या कई बार एकल माता या पिता वाले परिवारों में बच्चों की आपसी चर्चा या अपनी समस्याएं बताने के लिए कोई भी परिजन उपलब्ध नहीं होता है। ऐसे में बच्चे अंतर्मुखी हो जाते हैं और आगे उनमें मानसिक और शारीरिक एवं मानसिक दोनों रूपों में होने वाली मनोदैहिक (psychosomatic) बीमारियां होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं जब बच्चा निरंतर मानसिक दबाव और अवसाद को झेल नहीं पाता है तो वह आत्महत्या को ही अपनी समस्याओं का समाधान समझ लेता है। इन दिक्कतों के समाधान की शुरुआत परिवार से होती है। परिवार के लोग बच्चे पर ध्यान दें। माता-पिता अपनी महत्वाकांक्षाओं को बच्चों पर थोपने से बचें। घर में ऐसा माहौल बनाया जाए जहां बच्चा अपनी बात रख सके। इसी तरह पढ़ाई के तनाव के संबंध में करियर चुने जाने में बच्चे की पसंद-नापसंद और दिलचस्पी की अहम भूमिका है। बच्चे को एक तरफ सफलता के लिए कड़ी मेहनत और लगन की जरूरत के बारे में बताया जाना चाहिए, वहीं दूसरी तरफ उसे यह भी पता होना चाहिए कि सफलता-असफलता दोनों ही जीवन का हिस्सा हैं। बच्चे की देखभाल और उसके भले-बुरे की सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवार की है, हालांकि सरकार को भी इस बारे में जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। सरकार अगर मानसिक बीमारियों से जुड़े भ्रम और कलंक बोध को कम कर सके तो हम कई बच्चों को मानसिक अवसाद और आत्महत्या की गर्त में गिरने से बचा सकते हैं।
लेख: हर्ष साहनी
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