भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए लाखों लोग फांसी के फंदे पर झूल गए। इनमें से कुछ लोंगों के नाम तो स्वतंत्रता के इतिहास में अंकित हो गए और लोग उन्हें याद करते हैं लेकिन अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले अधिकतर सेनानियों के नाम गुमनामी के अंधेरे में खो गए। अमरचंद बांठिया उन्हीं में से एक हैं।
स्वाधीनता समर के अमर सेनानी सेठ अमरचंद मूलतः बीकानेर (राजस्थान) के निवासी थे। वे अपने पिता अबीरचंद बांठिया के साथ व्यापार के लिए ग्वालियर आकर बस गए थे। जैन मत के अनुयायी अमरचंद ने अपने व्यापार में परिश्रम, ईमानदारी और सज्जनता के कारण इतनी प्रतिष्ठा पायी कि ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि देकर राजघराने के सदस्यों की भांति पैर में सोने के कड़े पहनने का अधिकार दिया। आगे चलकर उन्हें ग्वालियर के राजकोष का प्रभारी नियुक्त किया गया।
अमरचंद अत्यंत धर्मप्रेमी थे। 1855 में उन्होंने चातुर्मास के दौरान ग्वालियर पधारे संत बुद्धि विजय के प्रवचन सुने। इससे पूर्व वे 1854 में अजमेर में भी उनके प्रवचन सुन चुके थे। उनसे प्रभावित होकर वे विदेशी और विधर्मी राज्य के विरुद्ध हो गए। 1857 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सेना और क्रांतिकारी ग्वालियर में सक्रिय हुए तो सेठ अमरचंद ने राजकोष के समस्त धन के साथ ही अपनी पैतृक सम्पत्ति भी उन्हें सौंप दी।
उनका मत था कि राजकोष जनता से ही एकत्र किया गया है। इसे जनहित में स्वाधीनता सेनानियों को देना अपराध नहीं है और निजी सम्पत्ति वे चाहे जिसे दें। लेकिन, अंग्रेजों ने उन्हें राजद्रोही घोषित कर उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया। ग्वालियर राजघराना भी उस समय अंग्रेजों के साथ था।
अमरचंद भूमिगत होकर क्रांतिकारियों का सहयोग करते रहे पर एक दिन वे शासन के हत्थे चढ़ गए और मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में ठूंस दिया गया। सुख-सुविधाओं में पले सेठ अमरचंद को वहां भीषण यातनाएं दी गईं। मुर्गा बनाना, पेड़ से उल्टा लटका कर चाबुकों से मारना, हाथ-पैर बांधकर चारों ओर से खींचना, लोहे के जूतों से मारना, अण्डकोषों पर वजन बांधकर दौड़ाना, मूत्र पिलाना आदि अमानवीय अत्याचार उन पर किये गए। अंग्रेज चाहते थे कि वे क्षमा मांग लें; पर सेठ जी तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेजों ने उनके आठ वर्षीय निरपराध पुत्र को भी पकड़ लिया।
अब अंग्रेजों ने उन्हें धमकी दी कि यदि तुमने क्षमा नहीं मांगी तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी। यह बहुत कठिन घड़ी थी; पर सेठ अमरचंद विचलित नहीं हुए। इस पर उनके पुत्र को तोप के मुंह पर बांधकर गोला दाग दिया गया। बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया। इसके बाद सेठ अमरचंद के लिए 22 जून 1858 फासी की तिथि निश्चित कर दी गयी। इतना ही नहीं, नगर और ग्रामीण क्षेत्र की जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने यह भी तय किया गया कि सेठ अमरचंद को सर्राफा बाजार में फांसी दी जाएगी।
अंततः 22 जून भी आ गया। सेठ अमरचंद तो अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे। अंतिम इच्छा पूछने पर उन्होंने नवकार मंत्र जपने की इच्छा व्यक्त की। उन्हें इसकी अनुमति दी गई; पर धर्मप्रेमी सेठ जी को फांसी देते समय दो बार ईश्वरीय व्यवधान आ गया। एक बार रस्सी और दूसरी बार पेड़ की वह डाल ही टूट गई जिस पर उन्हें फासी दी जा रही थी। तीसरी बार उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दी गई और शव को तीन दिन वहीं लटके रहने दिया गया।
सर्राफा बाजार स्थित जिस नीम के पेड़ पर सेठ अमरचंद बांठिया को फांसी दी गई थी, उसके निकट ही उनकी प्रतिमा स्थापित है। हर साल 22 जून को वहा बड़ी संख्या में लोग आकर देश की स्वतंत्रता के लिए प्राण देने वाले इस अमर हुतात्मा को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
(सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य)
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