Bareillylive : मुन्शी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के पास लमही नामक गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। नाम रखा गया धनपतराय श्रीवास्तव। पिता का नाम मुंशी अजायबलाल और माता का नाम आनंदी देवी था। किसानी से गुज़ारा न होता था तो पिता ने डाकख़ाने में 20 रुपए पगार पर मुंशी की नौकरी कर ली थी। सात वर्ष के थे तो माता का देहांत हो गया और पिता ने दूसरा विवाह कर लिया। पंद्रह की आयु में उनका विवाह करा दिया गया और सोलह की आयु में पिता चल बसे। दसवीं की परीक्षा क्वींस कॉलेज, बनारस से पास की 18 रुपए मासिक पर अध्यापक की नौकरी करने लगे थे। इस दौरान बहराइच, प्रतापगढ़, महोबा, गोरखपुर, कानपुर, इलाहाबाद —कई शहरों में रहना हुआ। प्रोन्नति भी मिली और स्कूल इंस्पेक्टर बन गए। 1904 में उर्दू और हिंदी में विशेष वर्नाकुलर परीक्षा पास कर ली थी। स्वाध्याय से हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, अँग्रेज़ी का ज्ञान भी बढ़ा रहे थे।
इस बीच पत्रकारिता भी शुरू कर दी थी। पहले ‘मर्यादा’ पत्रिका का संपादन किया, फिर सरस्वती प्रेस की स्थापना से संलग्न हुए। इसी सरस्वती प्रेस से आगे ‘हंस’ और ‘जागरण’ का प्रकाशन किया। आगे उन्होंने गंगा पुस्तक माला के साहित्यिक सलाहकार, ‘माधुरी’ पत्रिका के संपादक और हिंदुस्तानी अकादेमी के काउंसिल सदस्य के रूप में भी योगदान दिया। वह प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष भी रहे थे। प्रेमचंद ने अपना साहित्यिक सफ़र एक उपन्यासकार और आलोचक की हैसियत से शुरू किया था। उनका पहला उपन्यास 1901 में प्रकाशित हुआ और दूसरा 1904 में। वह तब उर्दू में लिखते थे और उनका नाम था नवाब राय। उन्होंने 1907 से कहानियाँ लिखना भी शुरू कर दिया था। वे आरंभिक कहानियाँ उस ज़माने की मशहूर पत्रिका ‘ज़माना’ में प्रकाशित हुईं। उनका पहला कहानी-संग्रह ‘ सोज़े वतन’ तब प्रकाशित हुआ जब प्रथम विश्वयुद्ध की तैयारियाँ ज़ोरों पर थी। इस संग्रह को अँग्रेज़ शासक द्वारा ख़तरे के रूप में देखा गया और लेखक को इसकी पाँच सौ प्रतियों को आग लगा देने के लिए मजबूर किया गया। यहीं से फिर प्रेमचंद ने नवाबराय नाम छोड़कर प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया। उन्हें यह नाम उर्दू लेखक और संपादक दयानारायण निगम ने दिया था। युद्धकाल में ही उन्होंने अपना पहला महान उपन्यास ‘सेवा सदन’ लिखा और युद्ध की समाप्ति पर ‘प्रेमाश्रम’ भी पूरा कर लिया था। हिंदी में जब ‘सेवासदन’ प्रकाशित हुआ तो हिंदी संसार में धूम मच गई। ‘बाज़ार-ए-हुस्न’ को इतनी तारीफ़ उर्दू में नहीं मिली थी। इसी क्रम में प्रेमचंद ने रंगभूमि उपन्यास की रचना पहले हिंदी में की, फिर उसे उर्दू में प्रकाशित करवाया। वह अब हिंदी और उर्दू दोनों में लिखने लगे थे, जहाँ कभी पहले उर्दू में लिखकर उसे हिंदी में ढालते थे तो कभी हिंदी में लिखकर उसे उर्दू में भी ले जाते थे।
उनके उपन्यास समाज के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करते हैं। हिंदी उपन्यास के इतिहास में उनके के समय को ‘प्रेमचंद युग’ के नाम से जाना जाता है। वह हिंदी के अत्यंत लोकप्रिय कहानीकार भी हैं। जयशंकर प्रसाद के साथ वह हिंदी कहानी की विकास यात्रा में एक युग का निर्माण करते हैं। उन्होंने उद्देश्यपरक कहानियाँ लिखी हैं जहाँ जीवन की सच्चाई को भाषा की सहजता-सरलता में प्रकट किया है। नाटक विधा में भी उनकी रुचि रही थी और इस क्रम में उन्होंने तीन नाटकों की रचना की, जबकि कुछ नाटकों का अनुवाद भी किया। लेखन के आरंभिक दौर में उन्होंने टैगोर की कहानियों का भी अनुवाद किया था। प्रेमचंद ने विपुल मात्रा में वैचारिक गद्य भी लिखा जो उस दौर की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। स्वयं एक संपादक और पत्रकार के रूप में उन्होंने समय और समाज के मसलों पर गंभीर टिप्पणियों के रूप में योगदान किया। प्रेमचंद की रचनाओं का देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया है। उनकी रचनाओं पर फ़िल्म, टीवी सीरीज़ का निर्माण हुआ है और उनके नाट्य-मंचन किए गए हैं। 8 अक्टूबर 1936 को बनारस में उनका निधन हो गया, हिन्दी साहित्य का जगमगाता सितारा बुझ गया।
हाँ मुंशी प्रेमचंद जी साहित्यकार थे ऐसे मानवता की नस-नस को पहचान रहे हों जैसे।
*सन् अठ्ठारह सौ अस्सी में अंतिम हुई जुलाई तब जिला बनारस में ही लमही भी दिया सुनाई आनंदी और अजायब जी ने थी खुशी मनाई बेटे धनपत को पाया सुग्गी ने पाया भाई
*फिर माता और पिता जी बचपन में छूटे ऐसे बेटे धनपत ने सचमुच सुख पाए कभी न वैसे
*थे नवाब उर्दू में वे हिंदी लेखन में आए विधि का विधान था ऐसा वे प्रेमचंद कहलाए लोगों ने उनको जाना दुखियों के दु:ख सहलाए घावों पर मरहम बनकर निर्धन लोगों को भाए
*साया जीवन का माना शिवरानी जी को ऐसे जब मिलकर साथ रहें दो, सूनापन लगता कैसे।
*बीए तक शिक्षा पाई अध्यापन को अपनाया फिर उप निरीक्षक का पद शिक्षा विभाग में पाया उसको भी छोड़ दिया जब संपादन खूब चलाया तब पत्र- पत्रिकाओं में लेखन था उनका छाया
*फिर फिल्म कंपनी में भी मुंबई गए वे ऐसे जब लौटे थे वे घर को तब पास नहीं थे पैसे।
*सन् उन्निस सौ छत्तिस में अक्टूबर आठ आ गई क्यों हाय जलोदर जैसी बीमारी उन्हें खा गई अर्थी लमही से काशी मणिकर्णिका घाट पा गई थोड़े से लोग साथ थे गुमनामी उन्हें भा गई
*बेटे श्रीपत- अमृत को वे छोड़ गए तब ऐसे अब नाम चलाएँ बेटे दुनिया में जैसे- तैसे।
*रचयिता- ✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट ‘कुमुद- निवास’ बरेली (उत्तर प्रदेश) मोबा.-9837 944187
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