प्रेमचंद हिंदी कहानी के आधार स्तम्भ हैं। वे विश्व के बेजोड़ कथाशिल्पी माने जाते हैं। हिंदी साहित्य की कहानी यात्रा उनके बिना अधूरी है। उन्होंने कई विश्व प्रसिद्ध उपन्यास भी लिखे मगर उनकी ख्याति एक कहानीकार के रूप में ही मानी जाती है। उनकी कहानियों में समाज का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से झलकता है। उन्होंने आम आदमी को केंद्र में रखकर कहानियां लिखीं और उसके मर्म को छूने का प्रयास किया। इसके कारण उनकी कहानियां लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हुईं।
सामाजिक ताने-बाने पर लिखी गई उनकी कहानियां बुनावट, कसावट, शिल्प एवं कथ्य की दृष्टि से बेजोड़ हैं। उन्होंने अपनी कहानियों को भाषा की दुरुहता एवं व्याकरण की जटिलता से बचाने का सफल प्रयास किया है। आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई उनकी कहानियां पाठक के अंतर्मन को गहराई से छू लेती हैं।
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले के लमही नामक ग्राम में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उनके पिता पोस्ट मास्टर थे। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। उन्होंने गरीबी अभावों एवं ग्रामीण जीवन से जुड़ी समस्याओं को काफी निकट से देखा एवं भोगा था। अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत उन्होंने एक शिक्षक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया। बाद में पदोन्नति पाकर वे विद्यालयों के उपनिरीक्षक बन गए।
1880 से 1936 तक का प्रेमचंद का जीवन काल देश की पराधीनता का काल था। उस समय अंग्रेजों का शासन था। अंग्रेज शासकों के क्रूर अत्याचारों से देश की जनता कराह रही थी। अंग्रेज देश को लूट रहे थे। उन्हें हमारे देश के वैभव से प्यार था और देश की जनता से नफरत।
गांवों में अंग्रेजों के वफादार माने जाने वाले राजाओं, जमींदारों, नवाबों एवं साहूकारों का बोलवाला था। उनकी मनमानी और अत्याचारों को झेलने को गांवों की भोली भाली जनता मजबूर थी। गांव की अधिकतर जनता अनपढ़ और गरीब थी। उनमें तरह-तरह के अंधविश्वास एवं कर्मकांड व्याप्त थे। इस सबको देखकर प्रेमचंद का मन उद्वेलित हो उठा। इस अन्याय, अत्याचार और दमन का प्रतिकार करने के लिए उन्होंने अपनी कलम को हथियार बनाया।
प्रेमचंद की अधिकतर कहानियों में ग्रामीण परिवेश की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उन्होंने आम आदमी के दर्द, बेबसी, भय एवं धर्मभीरुता को अपनी लेखनी द्वारा बड़ी बेबाकी से बयां किया है। उनकी कहानी ‘कफन’, ‘पूस की रात’, ‘पंच परमेश्वर’, ’बूढ़ी काकी’, ‘बड़े भाई साहब’, ‘नमक का दरोगा’, ‘दो बैलों की कथा’, ‘गुल्ली डंडा’, ‘ईदगाह’, ‘आंसुओं की होली’, ‘सवासेर गेहूं’ आदि में तत्कालीन ग्रामीण परिवेश का प्रतिबिम्ब झलकता है। ये कहानियां उस समय के ग्रामीणों की दुर्दशा को बयां करती हैं।
प्रेमचंद की कहानियां ‘अलग्योझा’, ‘नागपूजा’, ‘पंडित मोटे राम की डायरी’, ‘ठाकुर का खून’, ‘तगादा’, ‘गृहदाह’, ‘मूठ’, ‘बाबा जी का भोग’, तत्कालीन समाज में फैले कर्मकाण्ड, धर्मभीरुता, अंधविश्वास एवं जातिगत भेद पर करारी चोट करती हैं। ‘जिहाद’, ‘मंदिर-मस्जिद’, ‘अनमोल रतन’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में आदि कहानिययों उनके मन में बसी देश प्रेम की भावना मुखरित होती है। उनके उपन्यास कर्मभूमि और रंगभूमि में देशप्रेम और स्वराज की भावना और प्रखरता के साथ व्यक्त हुई है।
प्रेमचंद की साहित्य यात्रा सन् 1901 में प्रारम्भ हुई। वे नवाब राय नाम से कहानियां लिखते थे। उस समय ‘जमाना’ उर्दू की मशहूर पत्रिका थी। जमाना के सम्पादक दयानारायण निगम ने प्रेमचंद को साहित्य के क्षेत्र में स्थापित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे प्रेमचंद की कहानियों एवं लेखों को नियमित रूप से प्रकाशित किया करते थे। प्रेमचंद की पहली कहानी ‘जमाना’ पत्रिका में ही छपी। ये उर्दू में थी, बाद में प्रेमचंद उर्दू और हिंदी दोनों में लिखने लगे। उनकी लोकप्रियता दिनों-दिन बढ़ती गई।
प्रेमचंद का बरेली से भी गहरा नाता रहा। वे अक्सर बरेली आया करते थे और राधेश्याम कथावाचक के यहां ठहरा करते थे। दोनों में अच्छी मित्रता थी। राधेश्याम कथावाचक उस समय बरेली से ‘भ्रमर’ पत्रिका निकाला करते थे। इस पत्रिका का प्रकाशन सन् 1920 से अक्टूबर 1929 तक नियमित रूप से होता रहा। इस पत्रिका की पच्चीस हजार प्रतियां छपा करती थी। प्रेमचंद की कई कहानियां ‘भ्रमर’ पत्रिका में प्रकाशित हुईं। राधेश्याम कथावाचक और प्रेमचंद की मित्रता ताउम्र बनी रही।
उनका कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ सन् 1910 में प्रकाशित हुआ। उस समय देश में बंग-भंग आंदोलन चल रहा था। सोजे वतन का अर्थ होता है देश का दर्द। इस संग्रह की कहानियां पराधीनता के दर्द को वयां करती थीं, और देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत थीं।
इस संग्रह की कहानियों का उद्देश्य जनता में देश प्रेम की भावना जगाकर बंग-भंग आंदोलन को गति प्रदान करना था। जब अंग्रेजी हुकूमत को इस कहानी संग्रह के प्रकाशित होने की भनक लगी तो उसने इसकी सारी प्रकाशित प्रतियां जब्त कर लीं। अंग्रेजी सरकार इतनी भयभीत हो गई कि उसने इस पुस्तक की सारी प्रतियां प्रेमचंद के सामने ही जला दीं। विश्व के इतिहास में शायद यह पहला अवसर था जब किसी लेखक की पुस्तक की प्रतियां उसकी आंखों के सामने जलाई गई हों। ऐसा करके शायद अंग्रेज शासक प्रेमचंद के हृदय में बसी देश प्रेम की भावना को जला देना चाहते थे, मगर इससे प्रेमचंद के मन में देश प्रेम की भावना और बलवती होती गई।
‘जमाना’ पत्रिका के सम्पादक दयानारायण निगम के सुझाव पर इस घटना के बाद उन्होंने नवाब राय के स्थान पर प्रेमचंद के नाम से कहानियां एवं लेख लिखना प्रारम्भ किया। बाद में वे लोगों में प्रेमचंद के नाम से ही विख्यात हो गए। उनकी कहानी ‘अनमोल रतन’ देश प्रेम का अनुपम उदाहरण है।
महोबा में अपनी तैनाती के दौरान उन्हें बुंदे राजपूतों की वीरता ने बहुत प्रभावित किया। यहां उन्होंने ‘राजा हरदौल’, ‘आल्हा’, ‘सारंधा’ और ‘विक्रमादित्य का तेगा’ जैसी ऐतिहासिक कहानियां लिखीं। उनका पहला उपन्यास ‘वरदान’ भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित है और देश प्रेम की भावना से ओत-प्रोत है।
प्रेमचंद गांधी जी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे। उन दिनों गांधी जी देश में स्वराज्य लाने की अलख जगा रहे थे। प्रेमचंद और गांधी जी दोनों का उद्देश्य एक ही था- देश में स्वराज्य लाना और लोगों में देश प्रेम की भावना को उभारना। जो काम गांधी जी ने अपने सत्याग्रह से किया वही काम प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से किया। उनके उपन्यासों ‘रंग भूमि’ और ‘कर्म भूमि’ में गांधी जी के सत्याग्रह से जुड़े विचारों की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
प्रेमचंद की कहानियां विविधता से पूर्ण हैं जिनमें जीवन के विविध रंग बिखरे पड़े हैं। उन्होंने जीवन के हर पहलू पर अपनी कलम चलाई। उनकी कहानियों में आम आदमी का अक्स उभरता है जिससे उनका जुड़ाव सीधे पाठक के दिल से हो जाता है।
प्रेमचंद एक प्रखर पत्रकार भी थे। उन्होंने सन् 1930 से 1936 तक ‘हंस’ पत्रिका का सम्पादन किया। यह पत्रिका हिंदी कहानी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका मानी जाती है। प्रेमचंद के साथ मुंशी शब्द जुड़ने का रोचक किस्सा भी ‘हंस’ पत्रिका से ही सम्बन्धित है। उन्होंने कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के साथ मिलकर हंस पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था। पत्रिका के सम्पादक द्वय के रूप में कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी और प्रेमचंद का नाम छपता था। धीरे-धीरे मुंशी शब्द प्रेमचंद के साथ जुड़ गया और वे लोगों में मुंशी प्रेमचंद के नाम से विख्यात हो गए।
प्रेमचंद का आखिरी उपन्यास ‘गोदान’ था जो 1936 में प्रकाशित हुआ। उनकी साहित्य यात्रा उनकी अंतिम श्वांस तक अनवरत रूप से जारी रही। 8 अक्टूबर 1936 को वे पंचतत्व में विलीन हो गए।
प्रेमचंद हिंदी साहित्य के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उनका यश रूपी प्रकाश कभी मद्धिम नहीं होगा। उनकी कहानियां एवं उपन्यास हिंदी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। वे अपनी कालजयी कहानियों एवं उपन्यासों के माध्यम से सदैव इस वसुधा पर अमर रहेंगे।
सुरेश बाबू मिश्रा
(साहित्य भूषण से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार)